( पूरा राम ).
अमेजन प्राइम पर आज ये फिल्म देखी. बेहद प्रेरणाप्रद और शानदार फिल्म है. इन दिनों बहुजन मूवमेंट पर अच्छी-ख़ासी फिल्में बन रहे है, खासकर दक्षिण भारतीय, मराठी और क्षेत्रीय सिनेमा के कुछ निर्माता, निर्देशक. जिसमे एक ये फिल्म भी शामिल हो गयी हैं. ‘जयंती’ शीर्षक ‘बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर’ की जयंती दिवस से प्रेरित है.
दरअसल फिल्म का वास्तविक आग़ाज़ और पूरी भूमिका इसी जयंती को मनाने की कवायद से शुरू होती है और इसी के आधार पर फिल्म की कहानी आगे बढती है. बहुजन महामानवों को पढ़े-समझे बिना एक तरफ़ा अधकचरी धारणाएँ बनाने, वर्ष में एक बार जयंती मनाने, रैली, भाषण और गगनभेदी नारे लगाने के अलावा पूरे साल उनके विपरीत आचरण करने वालों को आइना दिखाती और कई प्रकार के सवाल भी खड़ी करती हैं ये फिल्म.
कहानी संतोष (रुतुराज वानखेड़े) नामक एक ओबीसी वर्ग के युवा की हैं जो पढने-लिखने और करियर बनाने की उम्र में स्थानीय विधायक गोंडाने (किशोर कदम) के राजनैतिक लाभ के लिए इस्तेमाल होता रहता है. कहानी जैसे-जैसे आगे बढती है संतोष की ज़िन्दगी में कुछ नाटकीय घटनाक्रम आते है और उसकी दिशाहीन ज़िन्दगी मे सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता-अध्यापक अशोक माली (मिलिंद शिंदे) और पल्लवी (तीतीक्षा तावडे) का पदार्पण होता है जो उसे उसकी असली पहचान खोजने और जाती-विरोधी नेताओं, साम्प्रदायिक-धार्मिक हिंसक संगठनों के कार्यकलापों से बनी-बनाई उसकी अधकचरी जानकारी और एकतरफा सुनी-सुनायी धारणाओं को सुव्यवस्थित आकार देने के लिए बहुजन महापुरुषों की प्रामाणिक जीवनियों और अध्ययन के प्रति रूचि जागृत कर उसे तराशने में मदद करते हैं.
अभिनेता मिलिंद शिंदे (अशोक माली) एक शिक्षक की भूमिका में बेहद प्रभावी बन पड़े हैं. एक शैक्षणिक क्लास लेते हुए वे बच्चों से कहते है – “संविधान लिखते हुए बाबा साहब सिर्फ उनकी जाति या उनके समाज के बारे में ही सोच सकते थे लेकिन उन्होनें आर्टिकल 340 लिखकर सबसे पहले ओबीसी समाज को उनके अधिकार दिलाये और बाद में अपने समाज को. ब्रिटिश राज में बाबा साहब जब श्रम मंत्री थे तब उन्होंने मजदूरों के अधिकार और सुरक्षा के लिए कानून बनाए. शिक्षित युवाओं को रोज़गार मिले इसके लिए एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज की स्थापना की. मज़दूरों के अधिकार सुरक्षित रहें इसलिए यूनियन को मान्यता दिलाई. बहुजन प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज, इन्होनें स्वराज्य का जो सपना देखा था, जिसकी नींव रखी थी, उसे वास्तव में लाने के लिए, सच करने के लिए बाबा साहब संविधान के माध्यम से कोशिश कर रहे थे.”
संतोष से जेल में मुलाकात पर उनके उद्गार सुनने योग्य है – “मुझे पता हैं तेरी जमानत नही होने दी इसलिए तू नाराज़ हैं मुझ पर, मेरा गुस्सा करने लगा हैं, लेकिन फिर कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि मुझे आना पड़ा, शिवाजी महाराज को पढ़ रहा है, सत्य की तलाश कर रहा है, अच्छी बात है वो तलाश ऐसे ही ज़ारी रहे इसलिए एक किताब लाया हूँ तेरे लिए (और धनञ्जय कीर रचित डॉ बाबासाहेब आंबेडकर की किताब देते हैं ). ये किताब पढना तेरे लिए चुनौती से कम नही है, लेकिन ज़रूरी है. समाज हित के लिए काम करने वाले महामानव किसी जाति-धर्म के नही होते, भले वो महामानव छत्रपति शिवाजी महाराज हो मराठो के, या डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर हो महारों के, वो मानव जाति के होते हैं और उनका कार्य उन्हें महामानव बनाता है. इन महामानवों के कार्यों से सत्य प्रवाहित होता हैं – वो तुकाराम के पास आता है, वहाँ से छत्रपति शिवाजी महाराज के पास आता है, वहाँ से यह सत्य महात्मा फुले के पास, और फिर बाबा साहब के पास आता है. इन सभी महामानवों का ध्येय एक ही हैं, बस उनकी राहें अलग-अलग हैं, ये किताब पढनी हैं या नही पढनी, ये फैसला तुझे करना हैं. लेकिन पढ़ेगा तो तेरा फायदा ही होगा.”
एक अन्य जगह वे संतोष से मुख़ातिब हो कहते है – “मुझे तेरा गुस्सा कभी नही आया, बेटा मुझे बुरा लगता था तेरे लिए, मुझे लगता था कि दुनिया में ऐसे लोग कैसे रह सकते हैं, जिनसे किसी का कभी कुछ भला नही होता, लेकिन एक बात पर मुझे तेरा पक्का विश्वास था, कि इन्सान को जैसे बुरी आदतें लगती हैं, वैसे अच्छी आदतें भी लग सकती हैं. जो हो गया उसे तो बदल नही सकता अब जो बदल सकता हैं उसके बारे में सोच. जिस दिन इन्सान उसका कर्तव्य जान जाता है उस दिन उसका असली जन्म होता हैं.”
मुख्य अभिनेता संतोष एक आदिवादी महिला रेखा ताई की हत्या व बलात्कार के अपराधी कुकरेजा को सज़ा दिलवाने के लिए विधायक के निजी सहायक ( पीए )दिनेश द्वारा गवाही देने से इंकार करने पर उसे कहता है –“क्यूँ नही कर सकते? मतलब अन्याय के खिलाफ लड़ने का ठेका सिर्फ बाबा साहेब के समाज ने ही उठाया है क्या? छत्रपति शिवाजी महाराज और क्रान्तिवीर बिरसा मुंडा सिर्फ नाम के लिए ही हमारे गुरु हैं क्या? समाज के लिए हमारी कोई ज़िम्मेदारी नही है? या अपने खून में ही दम नहीं है?” लेकिन पीए को अपनी मृत्यु का डर सताने पर संतोष आगे कहता है – “और नही बोले तो क्या अमर हो जाओगे? ठीक हैं मत बोलो, लेकिन इतना याद रखिये कि यहाँ से घर जाते-जाते भी तुम मर सकते हो. कोई रास्ता पार करते-करते भी मर सकते हो. घर में सीढ़ी होगी न वो चढ़ते-चढ़ते भी मर सकते हो. फिर सच बोलकर मरो न. कब तक दिनेश भाई, कब तक अपने ही माँ-बहनों पर हाथ डालने वालों की ग़ुलामी करते रहेंगे.”
और फिर बहुजन महामानवों की किताबें पढ़कर नायक वैचारिक उन्नति के साथ-साथ आर्थिक उन्नति की नीत नयी ऊँचाइयाँ चढ़ता हैं. वह नौकरी माँगने वाला नही बल्कि नौकरी देने वाला बनता हैं. अपने कई मित्रों को हिस्सेदार बनता है, बहुजन मूवमेंट और सामाजिक संघर्ष वित्तीय व वैचारिक मदद करता हैं. वैसे देश में दलित वर्ग के कई सफल युवा उद्यमियों ने बाबा साहब अम्बेडकर और ज्योतिराव फुले की शिक्षा की बदौलत आर्थिक और वैचारिक उन्नति से ऊंचाईयों को प्राप्त किया हैं. लेकिन ओबीसी वर्ग के कई युवा उद्यमी हैं जो आर्थिक रूप से तो सक्षम हुए हैं लेकिन वे संतोष की तरह बहुजन महामानवों की सही विचारधारा से अनभिज्ञ होने की वजह से पीछे हैं. संतोष तो एक ओबीसी प्रतिनिधि पात्र है उसी की तरह ऐसे कई युवाओं का रोज़ कोई नेता, राजनैतिक पार्टी, कोई साम्प्रदायिक-सांस्कृतिक संगठन या नए-नए धार्मिक संगठन इस्तेमाल करते है और वो इस्तेमाल होते हैं.
पूरी फिल्म में बहुजन आइकन के रूप में बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति शिवाजी, ज्योतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, छत्रपति साहूजी महाराज, क्रांतिकारी लाहूजी साल्वे, बिरसा मुंडा आदि के फोटो, नाम एवं उनकी पुस्तकों के टाईटल परस्पर वार्तालाप व फ्रेम दर प्रतीक रूप में आते-रहते हैं. फिल्म के अंत में नायक संतोष द्वारा अपनी बदलाहट और उन्नति के मुकाम हासिल करने पर एक सामाजिक पारितोषिक कार्यक्रम में दिए गए ये उद्बोधन इस फिल्म का सार है जिसे हर भारतीय खासकर बहुजन समुदाय को याद रखना चाहिए -“पहले मैं अपने माँ-बाप की सबसे नालायक औलाद था, लेकिन आज उन्हें खुश देखकर मुझे ऐसा लगता है कि मैनें बदलकर बहुत अच्छा किया. ज़िन्दगी में मैंने सिर्फ एक ही लड़की से प्यार किया-पल्लवी, लेकिन जयंती के दिन जब उसने मुझे मेरी औकात दिखायी तब मैं समझ गया था कि पल्लवी सिर्फ मेरे सपनों में ही आ सकती है, ज़िन्दगी में नहीं. और आज, आज सच में मुझे लग रहा है कि मैं बदल गया और अच्छे के लिए बदल गया. पिछले छह-सात सालों में मुझे इतना तो समझ आया कि ज़िन्दगी में अगर तुम कुछ मीनिंगफुल नही कर पाए न तो इस धरती पर इंसान का जन्म लेकर कोई फायदा नही. पहले मुझे लगता था कि हाथों में बंधे धागे और अंगुठियों से कुछ चमत्कार होगा लेकिन वो मेरी गलतफहमी थी, मेरी ज़िन्दगी में अगर असली चमत्कार हुआ होगा न तो महामानवों के विचारों को पढ़कर और समझकर हुआ है. इन महामानवों ने बहुत मेहनत करके और बहुत कुछ सहन करने के बाद हमारे लिए एक खुबसूरत दुनिया बनायी, अगर हमें उन्हें नमन करने की इतनी ही इच्छा है, तो मुझे ऐसा लगता है कि हम सबने हमारी ज़िन्दगी, एक खुबसूरत फूल जैसी बनाकर उन्हें अर्पण करनी चाहिए. हमने खुद को और अपने काम को इतना बड़ा बनाना चाहिए कि पूरी दुनिया में हमारे महामानवों की जयंती, सबसे पढ़े-लिखे, प्रगतिशील और ज़िम्मेदार समाज की पहचान बननी चाहिए. आज ये सम्मान स्वीकारते हुए मुझे ऐसा लगता हैं कि मैं इतना तो क़ाबिल हो गया हूँ कि छत्रपति शिवाजी महाराज और डॉ बाबा साहब अम्बेडकर, इन दो महामानवों का नाम हक़ से ले सकता हूँ. जय शिवराय ! जय भीम !!”
यह फिल्म मिलिओरिस्ट फिल्म स्टूडियो की निर्मिती और दशमी स्टूडियोज की प्रस्तुती हैं. कथा, पटकथा, संवाद लेखन और निर्देशन शैलेश नरवाडे ने किया हैं. फिल्म का पार्श्वसंगीत कुछ एक सामान्य गीतों के अलावा पूरी फिल्म में नही के बराबर हैं जिसकी वजह से डायलाग डिलीवरी का सम्प्रेषण काफी बढ़िया इफेक्ट देता है. पूरी फिल्म साफ-सुधरी है, किसी भी प्रकार के अश्लील कंटेंट या हिंसा के दृश्य नही हैं इसलिए पूरे परिवार के साथ देखने योग्य बेहतरीन फिल्म है ये. यह जरूर देखी जानी चाहिए खासकर बहुजन समुदाय के युवा (ओबीसी, अल्पसंख्यक, एससी, एसटी) जिन्हें अपना करियर बनाना है और हर वर्ग के सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी, जो जाति-धर्म से परे समाजकर्म में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं अथवा निभाना चाहते हैं.