Mayawati, Media And Thinking of Society

(सम्राट बौद्ध )

एक बार को आप भूल जाइए की आप कौनसी राजनीतिक विचारधारा से आते है और किस राजनेता को पसंद या नापसन्द करते है। भारतीय राजनीति में शिला दीक्षित, सुषमा स्वराज, से लेकर ममता बनर्जी तक तमाम राजनेता आज है और रही हैं। पर ऐसा क्यों है कि अपमानजनक भाषा और तमाम गन्दी से गन्दी गाली का प्रयोग मायावती जी के खिलाफ ही क्यों होता है..?
क्या आपने देखा है कि मीडिया ने कभी ये दिखाया हो कि सुषमा स्वराज या शिला दीक्षित कैसे सैंडिल पहनती है या कितने रुपये की पहनती है..?


कभी किसी और महिला राजनेता के गहने , कपड़े और बालों पर इतनी चर्चा होते आपने देखी है…?
आपने कभी सुना है कि कभी मीडिया ने ये दिखाया हो कि सुषमा स्वराज या शिला दीक्षित कितने बड़े या छोटे बंगले में रहती है या उनकी संपत्ति कितनी है…? क्या आपने मायावती के अलावा किसी और महिला राजनेता के बारे में अभद्र जोक सुना या पढ़ा है कभी..?


नही, इन सभी सवालों का जवाब है नहीं , आपने कभी ना मीडिया के द्वारा सुना होगा और ना कभी समाज मे इस बारे में चर्चा होते सुनी होगी।फिर ऐसा क्यों होता है कि मायावती को ही कोई किन्नर, पर कटी महिला , बदसूरत महिला, और हिंदी भाषा मे मौजूद हर गन्दे से गन्दे शब्द का प्रयोग किया जाता है।इसका जबाब सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित, ममता बनर्जी और मायावती के उपनाम में है। मायावती के अलावा ये सभी ‘चितपावन ब्राह्मण’ महिला और मायावती एक दलित।


मायावती एक महिला ही नही एक स्वाभिमानी, ज़िद्दी, ना झुकने बाली पुरुषवादी वर्चस्व बाले समाज और राजनीति में पुरुषवाद और मनुवाद के खिलाफ झंडा लिए खड़ी एक मात्र व्यक्ति है और इस सब के ऊपर एक ‘दलित’ है।


भारत में गाँव मे एक दलित महिला को नाम से नही बल्कि चमरिया, कोरिन, मैतरानी, बरारिन जैसे जातिगत नाम से ही तथाकथित उच्च जाति के लोग जानते है, की “वो देखो फला गाँव की चमरिया जा रही है” और उनके लिए ये बड़ी सामान्य सी बात है। उन महिलाओं के साथ बलात्कार, व्यभिचार, छेड़छाड़ को ये तथाकथित उच्च जाति के लोग अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते है और इसे वे अपराध की नजर से देखते भी नही है। इन वर्गों की महिलाओं के साथ गाँव गाँव मे बलात्कार, छेड़छाड़ बहुत आम सी बात बात है। उसी गाँव मे समान गुण या अवगुण बाली समान उम्र की सवर्ण महिला को वे ही पुरुष इज़्ज़त से पेस आते है। ऐसे समाज मे कोई दलित महिला मंच पर अकेली सफेद सोफे पर शेरनी की तरह बैठे, बाकी तमाम उच्च जातीय पुरुष उसके पीछे हाथ जोड़े खड़े रहें। तो कैसे ये पुरुषवादी समाज उस बात को हजम करें, क्यों उस महिला से नफरत ना करे..!


कैसे ये समाज बर्दास्त करे कि एक ‘चमरिया’ इतने बड़े बड़े पार्क बनवाये अछूतों के और उसमें भी अपनी मूर्ति लगवाए। आप सोच नही सकते कि ये पार्क और उनमें मायावती की मूर्ति देख के कई लोग खाना भी नही खा पाते है।कैसे ये समाज बर्दास्त करे कि ये ‘चमरिया’ के आगे कोई सवाल करने की हिम्मत नही कर पाता, केवल ”जी बहिन जी कह के जबाब दे”।


कैसे ये समाज बर्दास्त करे कि एक चमरिया बिना साड़ी, बिंदी, लंबे बालों के सीना तान के चलती है..?कैसे ये समाज बर्दास्त करे कि गाँव के तमाम बड़े बड़े ठाकुर साहब, पंडित जी लाखों की भीड़ के सामने खुले मंच पर एक महिला के पैर छुए, वो भी एक चमरिया के।कैसे ये समाज बर्दास्त करे कि एक महिला ऊपर से चमरिया के आते ही तमाम सदियों के राज करने बाले पुरुष खड़े हो जाते है।
ये सब देखना और पिछले 30 साल से रोज-रोज देखना भारतीय जातिवादी समाज और मीडिया के लिए जहर पीने जैसा है। यही खीज तमाम मीडिया की मायावती के बारे में हर रिपोर्ट में या ऐसे टिप्पणी करने बाले तमाम नेताओं के मुँह से निकलती है।


 उनके लिए दलित महिला का मतलब एक  ‘चमरिया’ है। और मायावती उनकी उस सोच को अपने हर कदम और तस्वीर के साथ चुनौती देती है। 2012 में ऐसा ही एक मौका आया जब मायावती ने नोटों की माला पहनी, पूरा भारतीय समाज और मीडिया ये बर्दास्त नही कर पाई ,की एक चमरिया इतने ऊपर कैसे जा सकती है। मनुस्मृति जो शूद्रों को सम्पत्ति और धन रखने को भी अपराध बताता है उस मनु के देश मे एक चमार महिला नोटों की माला पहने। ये देख कर कैसे ये मनुवादी पुरुषवादी समाज सो पाया होगा। 

मीडिया और समाज ने उस समय रात दिन उस बात की आलोचना की और उन्हें उम्मीद थी कि मायावती इसके लिए अपने बचाव में कोई सफाई देंगी या क्षमा माँगेंगी पर  मायावती भी ये बात समझीं और उन्होंने दोबारा 2 दिन बाद उससे बड़ी नोटों की माला पहिन कर जबाब दिया। 


यही गुरूर ,  ज़िद और स्वाभिमान एक दलित महिला का भारतीय समाज पचा नही पाता और समय समय पर अपनी खींच निकालने के लिये हर छोटी सी छोटी बात को मायावती के खिलाफ ले जाने का प्रयास करते है। उनके सैंडिल, हैंड बैग, कुर्ते का रंग , कटे बाल और रंग पर आलोचना होती रहती है। अब नौबत तो यहाँ तक आ गयी कि जब उनके सैंडिल और बैग नही दिखी तो मायावती जी के जन्मदिन पर उनके बगल से खड़े एक छोटे से लड़के के जूते को ही इतना बड़ा मुद्दा बना दिया गया की 2 दिन उस पर पूरा मीडिया बहस करता रहा। उनके जूतों के रेट तक भारतीय मीडिया ने बताए। अब आप सोचिए क्या कभी किसी और भारतीय महिला या पुरुष नेता के बगल से खड़े किसी व्यक्ति के जूतों के बारे में मीडिया ने ध्यान दिया है या आपने ऐसी कोई रिपोर्ट देखी है।असल मे समस्या इस बात से नही की उस लड़के ने किस कंपनी के जूते पहने । समस्या ये थी कि एक दलित लड़का वह भी मायावती का रिश्तेदार इतने महंगे जूते कैसे पहन सकता है। किसी ‘चमरा’ की इतनी औक़ात कैसे हुई की 20000 की चप्पल पहनें। समस्या मीडिया और समाज के चेतन – अवचेतन मन मे भरे जातीय सोच में है।


खैर, मायावती ,मीडिया और समाज की इस सोच को बहुत अच्छे से जानती है और ऐसी हर टिप्पणी के बाद उनकी प्रतिक्रिया समाज, मीडिया को और चिढ़ाने बाली होती है, यहीं बात मीडिया बर्दास्त नही कर पाती इसलिए मायावती नही तो उनके बगल से खड़े लोगों के जूते देखने लगते है।मैं यह नही कह रहा कि सब लोग मायावती के आगे हाथ जोड़ें खड़े रहे , उनकी पूजा करें उनकी आलोचना नही करें। मायावती जी की आलोचना होनी चाहिए,  हज़ार बार हो , रात दिन हो। पर आलोचना उनकी नीति, उनकी राजनीति की हो, उनके कामों की हो, उनके भाषणों की हो। जैसी आप और हम सुषमा स्वराज, ममता बनर्जी की करते है।  ये महिला और मायावती का भेद खत्म हो.

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