( नीरज ‘थिंकर’ )
करणन …सिनेमा का जाना पहचाना नाम बनने जा रहा है…मैं सिर्फ इसे एक फिल्म के रूप में नहीं देखता हूँ जिसमे एक कहानी कही गयी हो मनोरंजन के लिए ..यह हजारो – हजार कहानियों का ज़ीवंत चित्रण है और सही मायने में “सिनेमा ऑफ़ रेसिस्टेंस” है. मुझे ये फिल्म देखे हुए 3 से 4 दिन हो गये है लेकिन फिल्म के बारे में कुछ भी लिखना मुश्किल-सा लग रहा है. मैं पूरी तरह से भावनाओं से लबरेज हो गया हूँ.मारि सिल्वराज की ‘पेरियेम पेरुलुम’ देखी थी उस समय भी इसी तरह के मनोभाव उभरे थे.. करणन उस कहानी से भी एक कदम आगे बढ़कर दलितों के “सामूहिक प्रतिरोध” को बेहतरीन ढंग से बयां करती है.

फिल्म का शुरूआती दृश्य ही आपको झकजोर कर रख देता है,जहाँ पर एक लड़की बीच सड़क पर बेहाल पड़ी हुयी है. मुंह से झाग निकल रहे है. वह तड़प रही है. लेकिन वहाँ से गुजरने वाली बसें और आते-जाते वाहन और उसमे बैठें लोग पूरी तरह से निर्दय बने हुए दिखाए देते है. कोई उस लड़की की मदद नहीं करता है. डायरेक्टर ने ‘बर्ड आइ व्यू’ के माध्यम से इस सीन की भयावहता को शानदार ढंग से पेश किया है. किसी की मदद न मिलने के आभाव के कारण लड़की की मौत हो जाती है. फिल्म की कहानी यहीं से शुरू होती है.
दरअसल इस फिल्म का प्लाट 1990 के दशक में तमिलनाडु में कोडियांकुलम जाति के ऊपर 600 के लगभग पुलिस बल द्वारा किये गए हमले पर आधारित है,जिसमे पुरे गाँव को तहस नहस कर दिया .यह फिल्म ग्रामीण परिवेश में व्याप्त क्रूर जातिवाद को दर्शाती है. दो गाँव जिसमे कोदियांकुलम जिसमे दलित समुदाय के लोग रहते है और दूसरा गाँव मेलुर जहाँ गैर दलित लोग रहते है. मेलुर गाँव वालो द्वारा अपनी जातीय सर्वोच्चता कायम रखने के लिए दूसरे गाँव वालो पर विभिन्न तरीको से अत्याचार किये जाते है. फिल्म में जातिवादी मानसिकता वाले पुलिसकर्मियों को भी दिखाया गया है, जिन्हें दलितों के नाम से ही तकलीफ़ होती है. उनके अनुसार ये नाम विशिष्ट है.
दलित समुदाय के लोगों द्वारा अपने स्वाभिमान के लिए दमदार तरीके से जो सामूहिक लड़ाई लड़ी जाती है वो समुदाय के प्रतिरोध का स्वर है. भले ही कहानी में करणन जो की धनुष के रूप में लीड रोल में है. एक्टिंग भी काबिल-ए-तारीफ़ है. मगर मुझे लगता है कि इस कहानी में हर एक पात्र दमदार है. सभी के आपसी जुडाव और फिर एक साथ मुट्ठी तान कर विरोधियों से आँख से आँख मिलाने की हिम्मत एवं ताकत का मजबूत स्वर है.
यह सिर्फ एक कोदियांकुलम गाँव की कहानी नहीं है. यह भारत में दलित समुदाय पर हुये तमाम सत्ता प्रायोजित हमलो की दिल दहला देने वाली दास्ताँ का पुलिंदा है.चाहें वो डांगावास कांड की घटना हो, भीमा कोरेगांव हो , नामांतर आंदोलन हो , मिर्चपुर हो या फिर करमचेडु जैसे नरसंहार हो. करणन इस प्रकार के दलित दमन का प्रतिनिधित्व करती है .पूरी फिल्म के दौरान आँखे नम रहती है. इतना सजीव…इतना सरल..इतना अपनापन…इतनी जीवंतता ..शायद ही कहीं और मिले .

फिल्म के निर्देशक मारी सेल्वराज की जितनी तारीफ़ की जाये उतनी कम है. सृजनात्मकता का ऐसा नमूना इनके अलावा शायद ही कोई पेश कर पाए. फिल्म में छोटे कीड़ो से लेकर कुत्ता, बिल्ली, घोड़े,हाथी एवं गधे जैसे जानवरों का प्रयोग कहानी कहने के लिए करना कमाल की जादूगरी है.फिल्म में कोई भी किरदार बेवजह नहीं लगता है. चाहे उस छोटे लड़के का घोड़े के प्रति अटूट लगाव हो या फिर उस बूढी औरत का लकड़ियाँ बीनते हुए दिखाया गया हो और उसी समय थाथा का उसके पल्लू में बंधे रुपयों को चुराना हो…गजब का जमीनीपन दिखाया गया है.
हो सकता है कुछ लोग इसे पौराणिक कथाओं से लिए गये रेफरेंस के आधार पर देख सकते है. लेकिन मारी सेल्वराज ने भले ही महाभारत् कथा के पात्रों को फिल्म में जगह दी हो मगर सब कुछ उसके उल्ट दिखाकर यह साबित कर दिया है कि हमारा पर्सपेक्टिव क्या है. फिल्म में जो लड़की जो शुरू में मर जाती है .रूपक के रूप में पूरी कहानी में अलग अलग मौको पर दिखाई देती है.
फिल्म में रोमांस भी नैसर्गिक है. न ज्यादा न कमतर.गाँव वालो की शिक्षा के प्रति सजगता .करणन का आर्मी में भर्ती होने की तैयारी करना यह दर्शाता है कि हम पढना चाहते, आगे बढ़ना चाहते है. हमको लड़ाई झगड़े नहीं करने है. जब करणन का चयन हो जाता है आर्मी में, मगर वो अपने समुदाय के आत्मसम्मान को प्राथमिकता देता है. नौकरी की बजाय,जबकि उस नौकरी से पूरे गाँव वालो को बहुत आशा थी.उस गाँव में अभी तक यह पहली सरकारी नौकरी थी. गाँव वालो ने अपने सारे दुखों को भुला कर इस पल को एक साथ मिलकर जिया था,लेकिन करणन गाँव वालो को विपदा में अकेला नहीं छोड़ता है. यही होती है ‘कम्युनिटी स्प्रिट’ चाहे दुःख में भागी बने या सुख में.
पुलिस स्टेशन में दलितों के प्रति की गयी बर्बरता को देखकर खून खोलने लगता है. फिल्म के अंत में येमन (थाथा) का खुद को पेट्रोल छिड़क कर जला देने वाला दृश्य वहीं दूसरी और भयानक नरसंहार के बीच एक माँ बच्चें को जन्म देती हुयी. बहुत ही मार्मिक दो विपरीत घटनाएँ ! करणन जब आता है हाथ में तलवार लिए घोड़े पर सवार होकर तब लगता है ,बस सारे जातिवादी, दलितों के प्रति घृणा रखने वाले प्रशासन (पुलिस) को काट डाले और जब करणन का एसपी के साथ आखरी फाइट वाला सीन आता है तो लगता है कि करणन उसका सर काट दे. ये गुस्सा वर्षोँ से दलित समुदाय द्वारा झेले जा रहे अपमान, अन्याय एवं अत्याचार का नतीजा है. जब करणन सर काट लेता है और उसी समय बच्चा जन्म लेता है.गधा जिसके दोनोँ पांव बांध रखे थे भागने लगता है. तब लगता है कि अब कहानी पूरी हो गयी है. अत्याचार का अंत हो गया है और नए जीवन की शुरुआत हो गयी है.
( लेखक सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय है एवं फ़िल्म अध्ययन में रूचि रखते है )