– भंवर मेघवंशी
यह देश गम्भीर रूप से जाति की बीमारी से ग्रस्त है, हालात दिन प्रति दिन भयावह होते जा रहे हैं. हर दिन कोई ऐसी घटना घटती है, जिसे देखकर , सुनकर और पढ़कर मन में सवाल आता है कि यह कैसा देश है और कैसे है हम इसके निवासी ?
कभी कभी तो यह सामूहिक पागलखाना जैसा लगता है,पक्का शक होता है कि यह बीमार मानसिकता का समाज और राष्ट्र कभी विश्वगुरु रहा होगा . हो ही नहीं सकता. जो लोग इक्कीसवी सदी में भी इतने मूर्ख हैं, वे अतीत में कभी महान रहे होंगे, यह कल्पना काफ़ी हास्यास्पद लगती है.
जाति के फ़र्ज़ी दंभ में डूबा हुआ समाज, किसी के स्पर्श मात्र से अपवित्र हो जाने वाला अवैज्ञानिक और डरपोक नागरिक समाज सभ्यता के लिए चुनौती बन जाता है, फिर वह समाज नहीं रहता गिरोह में बदल जाता है.
दुःखद सत्य यही है कि हमने कबीलों से यात्रा शुरू की और गिरोहों में तब्दील होने को अभिशप्त है, यह मानव समाज के पतन की यात्रा है, यह क्षरण है, यह अंत की सूचक है. इस बीमार समाज का शीघ्र इलाज़ नहीं किया गया तो इसकी मौत निश्चित है.
लोगों में घृणा किस क़दर व्याप गई है , इसकी बानगी इन तस्वीरों में देखिये. यह राजस्थान के रेगिस्तानी जिले बाड़मेर के गिराब की घटना है, ये किशोर जो सनातनी सवर्ण हिंदू होने के अभिमान की पाठशाला के विद्यार्थी है, इनको इनके परिजनों ने यह संस्कार और समझ दी है कि अगर गाँव में बारिश न आये तो दलित समुदाय के शमशान में जा कर उनके मृतकों की क़ब्रों ( समाधियों ) को जूतों से रोंदना चाहिये, उन पर नमक डाल कर लाठियों से पीटना चाहिये, ताकि इनका देवता इंद्र प्रसन्न हो सके.
पश्चिमी राजस्थान के सरहदी इलाक़ों के कुछ जगहों के सवर्ण हिंदुओं में यह बीमारी बरसों से मौजूद है, वे अपनी मूर्खता का प्रदर्शन इस मौसम में करते रहते हैं. बाक़ायदा इसके लिए चंदा उगाही करते हैं, इस बेवक़ूफ़ी को वे ढ़ेढ़रिया कहते हैं.
ढ़ेढ़ एक अपमानजनक शब्द है, सीधे सीधे गाली ही है , जो कथित उच्च हिंदुओं के तुच्छ सोच की उपज है, बहुत बार लगता है कि इतनी निकृष्ट भाषा बोलने वाले श्रेष्ठ कैसे होते होंगे ? जिनको लोगों को आदर देना नहीं आता , जो इंसान को इंसान से कमतर समझते है, पशुओं को तो पूजते है और उनके पेशाब को पवित्र मानकर पी जाते हैं, लेकिन अपने ही जैसे इंसान को अपवित्र और अस्पृश्य मानते है और उनके हाथ का छुआ पानी तक नहीं पीते है ! इस सामुदायिक पागलपन पर अब बात होनी चाहिये.
सदियों से ऊँच नीच और भेदभाव तथा मान अपमान का सिलसिला जारी है, गिराब की घटना उसी बीमार समाज की निशानी है, जिसने अपने बच्चों को भी बीमार कर दिया है, ये दलितों के तो दुश्मन है ही अपने ही बच्चों के भी दुश्मन बन गए है, उनको इतनी वाहियात, अतार्किक और मूर्खता सनी समझ दे रहे हैं कि मृत दलितों की समाधियों को अपमानित करने से बारिश आती है !
घटना का विडीयो देश विदेश में फैल गया है, जिन्होंने यह किया और कराया, उन्होंने ही इसका विडीयो भी बनाया और गैंगस्टर 007 का शीर्षक दे कर उसे वायरल भी किया गया है, यह नईं क्रीमीनोलोजी है, जो इन दिनों अपराधियों में अकसर दिखाई देती है, वे सरे आम अपराध करते हैं, उसका विडीयो बनाते हैं और सोशल मीडिया में वायरल करके खुद को तीसमार खाँ समझते हैं.
बाड़मेर की इस घटना की प्राथमिकी दर्ज हो कर आरोपी भी पकड़े गए हैं जो कि नाबालिग हैं , सही जाँच पड़ताल होगी तो इनके बालिग़ आका भी सामने आ ही जायेंगे, क़ानून अपना काम करेगा, जो भी होना है होगा, लेकिन सवाल उस समुदाय और गाँव समाज पर भी है और इस तरह के कृत्यों में लिप्त जातियों के सभा संगठनों से भी है कि अपने समाज में व्याप्त इस बीमारी का इलाज़ कब करेंगे ? निरंतर सभ्य होते इंसानी समाज में आप कहाँ खड़ा पाते हैं खुद को, ज़रा सोचिये.
मृतकों की क़ब्रों को लाठियाँ मारने जितनी घृणा के साथ कब तक जियोगे ? ज़िंदा लोगों को तो लाठियाँ- गोलियाँ मार ही रहे हो. मरे हुओं की क़ब्रों को भी मारते रहोगे ? इतनी नफ़रत कहाँ से लाते हो ? इतनी गहन घृणा के साथ जीते जीते एक मुर्दा समाज बनने से बेहतर है कि वक्त रहते चिकित्सा करो और इस प्रकार की वाहियात और मूर्खतापूर्ण अपराधों से दूरी बनाओ.
इस तरह की घटनाएँ सवर्ण सनातनी हिंदुओं में दलितों के प्रति उनके दिल दिमाग़ में मौजूद नफ़रत को उजागर करती है, इससे ज़ाहिर होता है कि अब भी नागरिक समाज बनने और संविधान व सभ्यता की समझ विकसित करने का काम नहीं हो पाया है, वे किसी आदिम पाषाण युग के भग्नावशेष बने अतीत के ऐतिहासिक दम्भ में डूब कर मूर्खता पर मूर्खता किए जा रहे हैं, उनकी बीमारी बढ़ती जा रही है और ग़ज़ब तो यह है कि बीमार यह मानने को तैयार ही नहीं है कि वो बीमार है.