एस सी / एस टी एक्ट का सही क्रियान्वयन क्यों नहीं हो पा रहा है ?
( रक्षित परमार )
आइए जानते हैं कि आखिर क्या ऐसी दुविधाएं हैं कि अनुसूचित जाति -जनजाति कानून इसके मूर्त रूप में नहीं आ पा रहा है ? इसके पीछे बहुत से ऐसे कारण हैं जिनको जानना ज़रूरी हैं , सबसे पहला कारण शुरू होता हैं , स्थानीय पुलिस थानाधिकारी से जो कि इन मामलों को कतई गंभीरता से नहीं लेते ! इसके भीतर भी एक बड़ी वजह छूपी हुई है वह है पुलिस अधिकारियों का जातिगत मानसिकता का रूढ़ीवादी होना ! जब इस तरह के केस थाने में शिकायत के लिए पहुंचते हैं तब पुलिस अधिकारी जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं वो एस सी- एस टी एक्ट को लेकर पहले से ही नकारात्मक दृष्टिकोण अपना लेते हैं ।
पुलिस अधिकारी बुद्धमत्ता के मामले में तो मसलन कमजोर नहीं होते मगर वो संवेदनशीलता के मामले में बहुत असामान्य व्यवहार करते हैं और उन्हें लगता है कि इस तरह की घटनाएं आम बात हैं जबकि यह एक्ट इनका पूर्णतः निषेध करता है ।
साफ तौर पर कहे तो स्वयं प्रशासन संवेदनशीलता के मामले में बहुत कमजोर है और जातिगत मानसिकता का घौर शिकार हैं।
इस तरह के अनावश्यक आचरणों के आदि सामान्यतः हमारे पुलिसकर्मी , थानाधिकारी , उच्च प्रशासनिक अधिकारी और न्यायिक मामलों से जुड़े अधिकारी होते हैं । एस सी एस टी एक्ट के ठीक से क्रियान्वयन न हो पाने की वजह आमजन में कानूनी साक्षरता का अभाव हैं । लोगों में इस कानून के बारे में भ्रामक और अधूरी जानकारी होने की वजह प्रशासन के समक्ष मामले को सही तरीके से पेश नहीं कर पाते हैं । इस वजह से कमजोर स्तर की धाराएं लागू कर आरोपियों को मुक्त कर दिया जाता हैं ।
एस एस टी एक्ट में वास्तविक रूप में कड़ी सज़ा का प्रावधान है इसलिए इस तरह की घटनाओं में आरोपी का बचाव प्रशासन भी करने लग जाता है साथ ही यह केस मुख्य रूप से उच्च जातियों के उन लोगों के खिलाफ बनता है जो उसका उल्लंघन करते हैं । प्रशासन में अधिकतर अधिकारी उच्च जातीय वर्गों से आते हैं ऐसी स्थिति में उनका झुकाव स्वभाविक रूप से उच्च जाति से संबंध रखने वालों से ही होता हैं ।एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक इस एक्ट से जुड़े कुछ केस अपवाद स्वरूप 6 से 9 फीसदी झूठे पाए गए थे जबकि 93 फीसदी मामले सही पाए गए थे।
सामाजिक कार्यकर्ताओं की कमी और मुद्दों को योजनाबद्ध तरीके से नहीं उठा पाने की वजह से भी इस एक्ट का क्रियान्वयन बहुत प्रभावित हो रहा है । देशभर में नगण्य ऐसे सामाजिक संगठन होंगे जो एस सी एस टी एक्ट के उचित क्रियान्वयन को लेकर संघर्ष कर रहे हो ! एस सी एस टी समुदायों के शिक्षित लोगों का रूझान भी इस दिशा में न के बराबर दिखता है । कानूनी समझ , कानूनी मदद, प्रशासनिक सहयोग , आला अधिकारियों की इच्छाशक्ति पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि यह कानून शत-प्रतिशत क्रियान्वित हो मगर ऐसा हो नहीं पा रहा है ।
कानून का क्रियान्वयन तब भी बहुत शिथिल पड़ जाता है जब प्रशासन नहीं चाहता हो । हर जगह पर असहयोग देखने को मिलता हो ऐसी स्थिति में भी पीड़ित परिवार घूटने टेक देता हैं ।
सामाजिक कार्यकर्ताओं का प्रशासन पर कोई दवाब नहीं हो , उनकी एप्रोच किस स्तर की हैं , यह भी इस कानून के क्रियान्वयन में एक बड़ी बाधा उभरकर सामने आती है । एक्ट की गाइडलाइंस को पूर्णतः समझना , कारवाई में शामिल अधिकारियों से लाइजनिंग की दक्षता का सवाल भी बेहद मायने रखता हैं ।
इस कानून के क्रियान्वयन में जुटे अधिकारियों , उनके उच्च अधिकारियों , विभाग , आयोग , समिति , मंत्रालय और न्यायिक संस्थाओं से बेहतर तालमेल का अभाव भी एक्ट के क्रियान्वयन को कमजोर करता हैं । देशभर में ऐसी सामाजिक संस्थाओं और संगठनों का अभाव हैं जो पीड़ितों के लिए प्रशासन , पुलिस , न्यायिक संस्थाओं , आयोग और समितियों से लगातार संवाद स्थापित कर सकें और आवश्यकता पड़ने पर जनसहयोग को साथ लेकर प्रशासन पर जनता का सामूहिक दवाब बना सकें । ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए खासकर सामाजिक संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से और ऐसे जागरूक युवाओं से जो देश को एक नई दिशा देना चाहते हैं ।
एक्ट से जुड़े अपराधों में कमी लाने में अगर कोई संगठन , युवा कार्यकर्ता आगे आते हैं तो निःसंदेह प्रशासन और न्यायिक संस्थाओं पर एक आवश्यक दवाब बनेगा और वस्तुस्थिति बदलती दिखेंगी । सामाजिक स्तर पर भी विकासात्मक एप्रोच को बढ़ावा देना और दोषियों को कड़ी सज़ा देनी होगी । साथ ही समाज के स्तर पर सामूहिक बदलावों की शुरुआत हो तो ऐसे जातिगत हिंसा के मामलों में कमी आ सकती हैं । उच्च जातीय वर्गों को देश हित का परिचय देते हुए अपने विचारों को बदलना होगा और समाज के बदलते परिवेश को सहर्ष स्वीकार करना होगा ।
सामाजिक एकता का सूत्रपात हो इस भावना के साथ अगर आगे बढ़ेंगे तो यकीनन समाज में समानता और भाईचारा बढ़ेगा अन्यथा भविष्य में हमारा समाज हमेशा के लिए दो धड़ो में बंट जायेगा और आपसी संघर्ष रूकने का नाम नहीं लेगा .दुनिया का कोई भी देश जब अंदरूनी मामलों में ही संघर्ष कर रहा हो उसके लिए विकास की राह हमेशा मुश्किल भरी रहेगी ।
बतौर एक युवा लेखक मैं मानता हूं कि आपसी हितों को साधने में दो समुदायों के आपसी संघर्षों को कमोबेश अब तो विराम मिलना चाहिए ताकि देश का समग्र विकास तय किया जा सकें । जिस देश की जनता आपस में ही जाति – धर्म के आधार पर लड़ती रहेगी तो उस देश में भला शांति का सूत्रपात कब और कैसे होगा ? समाज में शिक्षा से बदलाव वांछित है ऐसे में दोनों समुदायों को सहजता से स्वीकार करना होगा और राष्ट्र एकता को बढ़ावा देना होगा ।