( हरिराम मीणा)
आत्महत्या नेता नहीं करते, क्योंकि उसके लिए आत्मा की ज़रूरत होती है’. यहाँ ‘आत्मा’ शब्द को ‘आत्म’ के रूप में देखना शायद बहतर होगा, चूँकि राजनेता आत्मकेंद्रित होते हैं. राजनैतिक दृष्टि से उनका ‘आत्म’ उनके व्यक्ति और परिवार की सीमा से आगे नहीं जाता. अपनी राजनैतिक पोजीशन को बरकरार और बहतर बनाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं. राजनेताओं के सम्पूर्ण व्यवहार में उनका ‘आत्म’ है, लेकिन उस आत्म की आत्मा स्वहित व स्वार्थ के गर्त में इस कदर डूब जाती है कि उसमें संवेदना का लेशमात्र भी नहीं बचता. दूसरी तरफ भावुक लोगों के ‘आत्म’ में संवेदना का तत्व (आत्मा) साधारण मनुष्य की तुलना में भी बहुत अधिक होता है, राजनेताओं की बात तो दूर है. भावुकता का अतिरेक विवेकशून्यता का कारण बनता है और ऐसी दशा में गहन अवसाद आत्मघाती सिद्ध होता है!
रे कोम्बस बहुत बड़े विदूषक थे. हर कलाकार भावुक व संवेदनशील होता है. बिना संवेदना के कोई लेखक नहीं हो सकता. अर्नेस्ट हेमिंग्वे एवं वर्जीनिया वूल्फ लेखन की दुनिया की महान हस्तियाँ थीं. विंसेंट वेन गो दुनिया के महानतम चित्रकारों में गिने जाते हैं. चित्रकार बेहद भावुक लोग होते हैं. (नीदरलैंड्स की राजधानी एम्स्टरदम में उनका म्यूजियम है, जिसे सन 2003 में देखने का मुझे अवसर मिला), प्रतिबद्ध पत्रकार (जो आजकल विरले हैं) का दिल कोमल होता है. हंटर थोम्पसन ऐसा ही पत्रकार व लेखक था. स्वर-संवेदना के बिना संगीत (गायन/वादन) की कल्पना नहीं की जा सकती. सन 1990 के दशक में कर्ट कोबैन सुपरस्टार गायक की ख्याति प्राप्त कर चुका था. मेरिलिन मुनरो के नाम के साथ सौंदर्य, समृद्धि व सुप्रसिद्धि जुड़ी थी. वह फ़िल्मी दुनिया की मानी हुई हस्ती थी. असल अभिनय का सीधा संबंध संवेदना से होता है. इन समस्त विभूतियों ने आत्महत्या की!
सबसे अधिक भावुक कविगण होते हैं. आत्मघाती कवियों में हर्ट क्रेन, सरगेई इसेनिन, एडम गोर्डन, रेंडल जेरेल, व्लादिमीर मायकोवस्की, सिल्विया प्लेथ साराह तिस्देल एनी सेक्सटन जॉन बेरीमेन एवं सैकड़ों अन्यान्य. ये सारी शख्सियतें 20 सदी में ही मशहूर हुई हैं. भावुक औए एकांती मनुष्य आत्महत्या की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं.
राजनेता भावुक नहीं होते. ‘अकेलापन’ किसी भी राजनेता के शब्दकोश में हो ही नहीं सकता. इसलिए राजनेता आत्महत्या नहीं करता. जिस राजनेता ने आत्महत्या की होगी, वह अवश्य उसके भीतर किसी कोने में भावुकता दुबकी रही होगी.
राजनेताओं के इस तरह के चरित्र को समझने के लिए उनके व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि में जाना होगा. मुझे प्रख्यात राजनीति-वैज्ञानिक हेरोल्ड लासवेल याद आ रहे हैं जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘Politics; Who Gets, What, When, How’ में अमरीकी संसद के उच्च सदन (सीनेट) के सदस्यों (senators) को लेकर किये गए शोध में यह निष्कर्ष निकाला कि ‘ये लोग (राजनेता) अपनी जड़ों से उखड़े हुए (uprooted) व कुंठित (frustrated) होते हैं.’ अर्थात जिन्हें बचपन में माँ-बाप सहित अपनों का स्नेह-दुलार व सम्मान नहीं मिला, वे लोग राजनीति में आते ही अपने इर्दगिर्द रहने वाले चमचों की चाटुकारिता से थोथा मनोवैज्ञानिक संतोष मिल जाता है. ऐसे जो लोग राजनीति में सफल नहीं होते वे संगठित गिरोहों के सरगना बन जाते हैं. इन्हीं का बड़ा तबका राजनेताओं की ‘भुजबल ब्रिगेडों’ के रूप में सामने आता है.
जब भारत स्वतंत्र होने का था, तब भारत के भावी राजनेताओं के बारे में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने कहा था कि-‘सत्ता दुष्ट, अपराधियों, लुटेरों के हाथों में जाएगी; सभी भारतीय नेता अक्षम और घास-फूस से निर्मित बेदम आदमी होंगे. वे मृदुभाषी किंतु अक्ल के पाज़ी होंगे. वे सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे और इन्हीं राजनैतिक झंझटों में भारत का पतन हो जायेगा.’ (Power will go to the hands of rascals, rogues, freebooters; all Indian leaders will be of low calibre & men of straw. They will have sweet tongues and silly hearts. They will fight amongst themselves for power and India will be lost in political squabbles.)
कई लोग मानते हैं कि चर्चिल ने ऐसा नहीं बोला. उनके एतराज़ को मान भी लिया जाये तो फिर हमें सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू के वक्तव्य का सन्दर्भ लेना चाहिए, जो यू-टूब पर भी उपलब्ध है. वे कहते हैं- ‘सभी दलों के हमारे ज्यादातर राजनेता निकम्मे, बदमाश व लुटेरे हैं, इन्हें बहुत पहले ही फाँसी पर लटका देना चाहिए था.’ (Our politicians of all parties are mostly a set of rogues and rascals who should have been hanged a long time back.)
यदि काटजू के इस कथन में यह जोड़ दिया जाये कि ‘चूँकि इन राजनेताओं में से कोई भी अपने कुकृत्यों पर पश्चाताप करता हुआ शर्म के मारे आत्महत्या नहीं करेगा’ तो हमारा यह सवाल अनसुलझा नहीं रहेगा कि ‘राजनेता आत्महत्या क्यों नहीं करते?’मैंने इस लेख का शीर्षक जानबूझकर ‘राजनेता प्राय: आत्महत्या क्यों नहीं करते?’ रखा है, ताकि ‘अप्राय: अपवादों’ के संदर्भ को भी यहाँ स्थान दिया जा सके. इस दृष्टि से महान जिन राजवंश के सम्राट आईजोंग (12वीं सदी) से लेकर अब तक अर्थात गत क़रीब 1000 वर्षों के राजनैतिक इतिहास में कुल मिलाकर 28 राज्याध्यक्षों (Heads of state) और 16 शासनाध्यक्षों (Heads of Government) की आत्महत्या की जानकारी उपलब्ध है.
अंतिम आत्महत्या पेरू के राष्ट्रपति ऐलन गार्सिया पेरेज़ ने सन 2019 में की. एक हजार साल के कुल राज्याध्यक्ष / शासनाध्यक्षों को देखते हुए आत्म-हंताओं की यह संख्या नगण्य है. राज्याध्यक्ष / शासनाध्यक्षों के अलावा अन्य राजनेताओं की संख्या असंख्य होगी और उनमें से आत्मघातियों की ख़ोज कम से कम मेरे लिए असंभव है. बहरहाल इस समूची सूची में भारत का कोई भी राजनेता शामिल नहीं है. यह जानकारी अधूरी हो सकती है, मगर यहाँ जो भी सामग्री उपलब्ध है, उसके मुताबिक यह स्थिति दर्शाती है कि भारत के राजनेता आत्महत्या के खिलाफ़ कितने मज़बूत होते हैं!
वोट की राजनीति को सर्वोपरि मानने वाले राजनेताओं का यह वर्ग डीठ या चिकना घड़ा बन जाता है. संवेदनहीन व्यक्ति मोटी चमड़ी का होता है जिसकी रगों में तरल रक्त का प्रवाह होते हुए भी उसका तंत्रिकातंत्र कठोर व्यवहार करने लगता है. अधिकांश राजनेताओं का भावनाओं से दूर दूर तक का वास्ता नहीं रहता. इनमें से ज़्यादातर अपने दल की तथाकथित वैचारिकी पर भी टिके नहीं रह सकते. हर तरह से अस्थिर, अप्रतिबद्ध व अनुत्तरदायी आदमी विकटतम परिस्थितियों में भी जिधर चाहे उधर अपने को ढाल लेता है. इसीलिए उनमें से अधिकांश अपनी पोजीशन के लिहाज़ से आसमान से धरती पर आ गिर पड़ते हैं, तब भी उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता. दशकों दशकों बाद यह प्राणी फिर राजनैतिक ओहदों पर आ बैठता है.
एक कहावत है कि ‘भारत में बदमाशों के लिए राजनीति आखिरी अड्डा है.’ बदमाश आदमी कभी नहीं हारता. शरीफ़ आदमी ही आखिर में हारता रहा है. वह चाहे जुर्म के खिलाफ़ लड़ने वाला कलमकार हो, बदसूरती को ख़ूबसूरती में तब्दील करने वाला कलाकार हो, अपनी मेहनत से बड़े से बड़ा काम करने वाला कामगार हो अथवा माटी में अपना पसीना बहाकर दुनिया भर के इंसानों का पेट भरने वाला किसान हो!