हमें ऐसे बहुजन पत्रकार पर नाज है !

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(भंवर मेघवंशी)
जिसका नाम है लखन और काम है लेखन !
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के गंगापुर तालुका के कोशीथल गाँव में जन्मे लक्ष्मी लाल को घर और गाँव सब तरफ लोग प्यार से लखन कहने लगे .जो कागजों में तो लक्ष्मी लाल ही रहा ,पर लोगों की जुबान और दिलों में लखन बन कर बस गया . जैसे हर ग्रामीण दलित बच्चे को उन दिनों शिक्षा मिलती थी ,वैसे उन्हें भी मिली ,पाठशाला के दिनों में ही राष्ट्रीय पर्वों और अन्य कार्यक्रमों में लखन सालवी को गाने और नाटकों में अभिनय का मौका मिला .उन्होंने अपने स्कूली जीवन में अपनी प्रतिभा का लौहा मनवाया.


उम्र बढ़ी तो उन्हें समझ आया कि उनके पिता प्यारजी के आस पास जो मण्डली बैठती है ,वह गाँव में जारी सामंती कहर से निज़ात पाने की बातें करती है ,इसमें कईं लोग शामिल थे ,जिनमें से कुछ अभी भी जीवित है और सामंती अत्याचारों के विरुद्ध झंडा बुलंद किये हुये है .गाँव के ठाकुर और उनके गुर्गों से त्रस्त किसानों और दलितों की व्यथा कथाएं सुनते समझते हुये लखन सालवी ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा .स्कूल में अभिनय के दौरान वे अक्सर सैनिक का रोल अदा किया करते थे या ऐसी भूमिका करते जिसमें वो लोगों को बचाने वाले बनते थे .जिस भूमिका को बचपन से करते आये .अपने पिता की सामंत विरोधी मण्डली के द्वारा सुनी हुई बातों और गाँव में हो रहे अत्याचारों को देख कर उनके द्वारा कई नाटकों में अभिनीत सैनिक हकीक़त में बदल गया .अब वे स्टूडेंट से तब्दील हो कर एक सैनिक की भूमिका में आ गये और उन्होंने अपनी किशोरावस्था में ही सामंतवादियों के खिलाफ जंग की शुरुआत कर दी .

गाँव सामंती कुचक्रों से त्रस्त था . गांवों के ठाकुर ,राव ,उमराव ,राजा ,महाराजा और राजाधिराज जैसे तमाम राजे रजवाड़े लोकतंत्र का फायदा उठाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों में जा घुसे और पंच ,सरपंच ,प्रधान ,जिला प्रमुख ,सांसद ,विधायक ,मंत्री बन गये .थानों में उन्होंने कब्ज़ा कर लिया .सेना में वो काबिज हो गये ,आजाद भारत के सब महत्वपूर्ण पद ब्राहमण ,क्षत्रिय और वैश्यों ने बाँट लिये .शुद्र और अछूत समुदाय तो ब्रिटिश इंडिया में जैसा था ,वैसा का वैसा ही इंडिपेंडेंट इंडिया में भी रह गया .दरअसल भारतीय स्वाधीनता शासक व शोषक जमातों के बीच सत्ता एवं संसाधनों का बंटवारा मात्र बन कर रह गई .इस बंदरबांट में छोटे सामंतों ने भी स्थानीय राजनीति पर कब्ज़ा कर लिया .पहले वे सिर्फ ठाकुर साहब हुआ करते थे ,आज़ादी के बाद वे ठाकुर के साथ साथ सरपंच या प्रधान साहब भी बन गये .


अपने गाँव कोशीथल में व्याप्त सामंतशाही ने लखन सालवी को बहुत गहरे तक प्रभावित किया .उनके एक अंकल गोरधन सालवी जो कि राजस्थान पुलिस में जवान थे ,वे बरसों से सामंत विरोधी आन्दोलन के अगुआ थे .घर का माहौल उन्हें सामंतवाद का विरोध करने की प्रेरणा देने के लिए काफी था .उन्होंने आगे का अध्ययन मुल्तवी कर दिया और गाँव में ही रह कर व्यवसाय करना शुरू कर दिया .ताकि वहीँ रह कर लोगों को संगठित कर सामंती अत्याचारों से मुक्ति पायी जा सके .
जीवन यापन करने तथा लोगों से जुड़ने के लिए लखन सालवी काम के बदले अनाज योजना में मेट बन गये .उन्होंने प्लोर मिल और मसाला उद्योग स्थापित किया .मोबाईल शॉप ,फोटो स्टूडियो ,संगीत पैलेस  ,वीडियो बनाना ,स्क्रीन आर्ट ,ट्रेवल एजेंसी ,निर्माण कंपनी ,पाइप और जाली उद्योग ,तेल घाणी आदि व्यवसायों में हाथ पांव मारे .कहीं सफलता मिली तो कहीं विफलता ,लेकिन लोगों से जुडाव हो गया .इसी दौरान उन्होंने एक कम्प्युटर इंस्टिट्यूट भी खोल लिया ,विज्ञापन एजेंसी ले ली और न्यूज़ सर्विस भी शुरू कर दी .गाँव और आस पास की समस्याओं पर उन्होंने लिखना शुरू कर दिया .


जैसा उनको लगता था कि पत्रकार हो जाना ,कोई बड़ी तोप बन जाना है ,ऐसा तो था नहीं .सरकारी अधिकारी कर्मचारी जो कि भ्रष्टाचार में लिप्त रहते है ,वे या तो मीडियाकर्मी को अपने साथ मिला लेते है या फिर उससे एकदम दूरी बना लेते है .किसी भी तरह की सूचना से उसे वंचित किये रहते है .लखन सालवी ग्राम पंचायतों में फैले भ्रष्टाचार को साफ साफ देख पा रहे थे .यहाँ तक कि वे अपनी ही ग्राम पंचायत कोशीथल में हो रही अनियमितताओं को जान रहे थे और उनसे रोज दो चार हो रहे थे ,मगर दस्तावेजी सबूतों का अभाव था .तब तक मजदूर किसान शक्ति संगठन के प्रयासों से सूचना के अधिकार का कानून राजस्थान ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में लागु हो चुका था . पत्रकार लखन सालवी ने इस अधिकार का उपयोग करने की ठानी .धुन के पक्के तो वे जन्मजात ही रहे है ,इसलिए एक बार जो ठान लेते है ,उसे करके ही छोड़ते है .सो अब वे सूचना के अधिकार कार्यकर्ता बनने की राह पर चल पड़े .


सितम्बर 2007 की बात रही होगी ,जब मेरे मोबाईल पर एक आवाज उभरी – “ मैं लखन सालवी बोल रहा हूँ ,आपसे मिलना चाहता हूँ “  थोड़ी देर हमारी बातचीत हुई .मुझे इस ग्रामीण दलित युवा का अंदाजे बयां अच्छा लगा .उन दिनों हम उनके निकटवर्ती इलाके रायपुर के एक गाँव सगरेव में दलित मानव अधिकार सम्मलेन करने की तैयारियो में लगे थे .मैंने लखन सालवी को अपने साथियों सहित वहां आ कर मिलने को कहा.वे आये और हम लोग पहली दफे 5 अक्टूबर 2007 को मिल लिये .यह मुलाकात काफी संक्षिप्त मगर सार्थक रही .


किसी शायर ने कहा है कि – ‘मरकजे इश्क का अंदाज निराला देखा ,उसको छुट्टी ना मिली जिसने सबक याद किया ‘.लखन सालवी से एक बार मिले तो फिर बिछुड़ना ही भूल गये .कब वे एक परिचित से मित्र बने और कब उन्होंने मुझे भाईसाहब का ओहदा दे दिया और खुद छोटे भाई बन बैठे ,पता ही नहीं चला .एक साथी जो सिर्फ मिलने आया था ,वह दलित अधिकारों की राह का हमसफ़र हो गया .अपनी पीडाओं का बयान करने आया था और लोगों की पीडाओं को सुनने लगा और विक्टिम से लीडर तक की यात्रा पूरी कर गया .सब कुछ इतनी सहजता से हुआ कि अब याद करने से भी बहुत सी बातें विस्मृत होती जा रही है.तो ऐसे मिले हमें लखन सालवी ,जिनका नाम लखन है और काम लेखन .


कहानी बहुत लम्बी है ,पर उल्लेखनीय तथ्य यह है कि लखन सालवी ने बहुत तेजी से स्वयं को तैयार किया .एक आंचलिक संवाददाता से राष्ट्रीय स्तर तक का पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता बनने का सफ़र बहुत मेहनत से बेहद जल्दी में तय किया .उन्होंने भास्कर के ग्रामीण संवाद प्रतिनिधि के रूप में लेखनी थामी और जल्दी ही वो विविधा फीचर्स से जुड़ गये .बाद में उन्हें आदिम जनजाति सहरिया समुदाय के मध्य जा कर बारां जिले में काम का अवसर मिल गया ,जहाँ पर वो ‘हाडौती मीडिया रिसोर्स सेंटर’ के समन्वयक बने .बहुत अच्छा काम किया .सहरियाओं की भाषा सीखी और उनमें घुल मिल गये .सहरिया समुदाय को बंधुआ मजदूरी से मुक्त करवाने के अभियान के दौरान लखन सालवी ने बहुत ही जोखिम भरी लेकिन जिम्मेदार पत्रकारिता की .वे चुनौतियों के बीच एक निडर पत्रकार बनकर उभरे .सहरिया समुदाय के लोग आज भी उन्हें बहुत सम्मान के साथ याद करते है .


लखन सालवी ने सोशल मीडिया का उस समय उपयोग प्रारंभ किया ,जब हमारे अधिकांश साथी इसके नाम से भी परिचित नहीं थे .वे उन दिनों फेसबुक ,ऑरकुट और गूगल प्लस पर सक्रिय थे .बारां के बाद वे भीलवाड़ा लौट आये .उनके दिल में सदैव अपने इलाके में सामन्तवाद से जूझ रहे लोगों को मदद करने की इच्छा रही .वे यहीं रह कर अपना संघर्ष जारी रखना चाहते थे .जब उनकी भीलवाड़ा वापसी हुई तो हमने मिलकर वर्ष 2011 में खबरकोश डॉट कॉम नाम से वेबसाइट लांच की ,वह खूब चली .मेरा तो सिर्फ नाम था ,उसके असली संपादक लखन जी ही थे .उन्होंने मेरे को सोशल मीडिया फ्रेंडली बनाया .कम्प्युटर चलाना सिखाया और मेरे फेसबुक अकाउंट से लेकर ट्वीटर हेंडल तक को खुद ही हेंडल किया .मेरे जीमेल से लेकर एफबी तक के पासवर्ड उन्होंने ही सेट किये .मुझे लगभग पांच साल तक उनका जबरदस्त सहयोग रहा ,जिसका ऋण चुकाना संभव नहीं है ,मैं आज जो हूँ ,उसे बनाने में जिन साथियों ने अपना खून पसीना लगाया है ,उनमें से एक कर्मठ साथी लखन सालवी भी है .


बाद में वे आजीविका ब्यूरो में काम करने गोगुन्दा चले गये .भीलवाड़ा में रहने के दौरान हमने रिखिया प्रकाशन की स्थापना की ,रूरल अवेयरनेस सोसायटी को मजबूत किया तथा दलित आदिवासी एवं घुमन्तू अधिकार अभियान राजस्थान (डगर ) के काम को नई ऊँचाईयां दी .लखन सालवी एक अच्छे संगठक और मोबलाईजर भी है ,उन्होंने आमेट ,गंगापुर ,रायपुर ,करेडा तथा रेलमगरा व देवगढ़ इलाकों में दलित अत्याचारों के मामलों में कईं सफल जन आन्दोलन खड़े किये और उनका नेतृत्व करके पीड़ितों को राहत दिलाई .वर्ष 2012 में संपन्न हुई ऐतिहासिक कबीर फुले अम्बेडकर चेतना यात्रा के मुख्य संकल्पनाकार साथी लखन सालवी ही रहे .उनके नेतृत्व में हमने किये और महत्वपूर्ण अभियान भी चलाये और सफलता पाई .


लखन सालवी इन दिनों फ्रीलांस जर्नलिस्ट है और गोगुन्दा के वासी है ,प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े है और सामाजिक संस्थाओं के लिए परामर्शदाता की भूमिका भी निभाते है .डायरेक्ट मार्केटिंग में भी हाथ आज़मा रहे है .डेली राजस्थान के संस्थापक संपादक तो है ही , रिखिया प्रकाशन के डायरेक्टर भी है . जल्द ही लखन जी का एक उपन्यास ‘ अलमस्त फ़कीर ‘ आने वाला है .साथ  ही वे क़ानून का अध्ययन भी कर रहे है , शीघ्र ही वे एडवोकेट लखन सालवी कहलायेंगे और वंचितों , पीड़ितों के पैरोकार की भूमिका में होंगे.आज लखन जी का जन्मदिन है,उनको बधाई,मुबारकबाद।

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