काश , हम सब शंकर की कठपुतलियाँ बन जायें !
– डॉ. रेणुका पामेचा
लिखनेवाला जब जन आंदोलनों का प्रत्यक्ष साक्षी हो तो लेखन में ताज़ी हवा का झौंका महसूस होता है.शंकर सिंह के जीवन पर जो उपन्यास लिखा गया है,वह बहती नदी की तरह धारा प्रवाह है.मेरी नज़रों में शंकर एक ऐसा इन्सान है जो बहुआयामी प्रतिभा का धनी है.जो सहज और आडम्बरहीन है.ऐसे व्यक्ति की जीवंत कहानी की माला को जिस तरह भंवर मेघवंशी ने पिरोया है,उसका कोई सानी नहीं है .
यह पुस्तक आत्मकथा भी है.उपन्यास भी है.जीवन के हर पड़ाव का आँखों देखा वर्णन व उसका रास्ता भी है .इसमें कहीं भंवर बोलता है,कभी स्वयं शंकर और कभी उसके झोले की कठपुतलियाँ बोलती है.कौन कहता है कठपुतलियाँ नहीं बोलती और नहीं सुनती है.शंकर की कठपुतलियाँ सब कुछ देखती है.आपस में बातें करती है,बोलती है,सुनती है और उन लोगों पर गानों के बाण छोड़ती है जिनकी जवाबदेही थी,पर नहीं निभाई.जिनको बोलना,देखना,सुनना व काम करना चाहिए था,उन गूंगे बहरों को जगाने का काम शंकर की कठपुतलियों ने किया.
लोगों ने शंकर को किसी भी समय उदास नहीं देखा होगा .पूरा उपन्यास भी उसे कहीं उदास और निराशा में नहीं ले जाता है .समाज में ,घरों में ,परिवारों में व्याप्त दुःख का हल खोजता नजर आता है .शंकर ने तभी तो 17 काम छोड़े,सरकारी नौकरी छोड़ी,जोकर बना ,संस्था छोड़ी और निकल पड़ा अलख जगाने और टीम बनती गई .पूरा उपन्यास अरुणा ,निखिल के साथ मिलकर सांस्कृतिक माध्यम से बड़ी से बड़ी समस्या के समाधान का जीवंत चित्रण है .
पूरा उपन्यास इस तरह एक कहानी से दूसरी कहानी तक ऐसे बयान करता है जैसे सब सामने घटित हो रहा है .अगर यह उपन्यास नहीं पढ़ती तो मुझे पता ही नहीं चलता कि शंकर के जीवन का संघर्ष कितना गहरा था .मुझे कहीं भी शंकर निराश होते नजर नहीं आया .सीखने की ललक ,नवाचार करने की ललक और हर मौके व समस्या को आन्दोलन में बदलने व लोगों को जोड़ने की जो कला शंकर में है ,वह इस कारण है क्योंकि वह सब कुछ अंगुली पर नचा सकता है .
इस पूरे उपन्यास में मजदूर किसान शक्ति संगठन के 30-40 सालों के संघर्ष ,नये कानून व नीतियों के बनने का सफ़र साफ साफ दिखाई देता है .ऐसा विरला जन आन्दोलन इस उपन्यास में शंकर की कहानी के माध्यम से सामने आया है .ऐसी पुस्तकें हमारे पाठ्यक्रमों का हिस्सा बननी चाहिये,ताकि समाज व सरकार का असली चेहरा व संघर्ष करने वालों की कहानी नई पीढ़ी को समझ आये .जैसा शंकर आज है ,वह ऐसे ही नहीं बना है .जो शंकर को जानते हैं या जो नहीं जानते हैं दोनों के लिये यह उपन्यास प्रेरणा देता है .
अंत में काश हम सब शंकर की कठपुतलियाँ बन जाएँ तो झोले में से बोलने की आज़ादी होगी और अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं होगा और देशद्रोह का मुकदमा बना कर जेल में नहीं डाला जायेगा .एक बात साफ है कि भाले से बाटी नहीं सिकती है ,बाटी सेकनी है तो झगरे (आग ) के पास बैठना होगा यानि लोगों के बीच जाकर काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है .भंवर मेघवंशी को इस पुस्तक के लिये साधुवाद ,धन्यवाद .
( लेखिका जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता और राजस्थान के महिला आन्दोलन की प्रमुख स्तम्भ है ,उन्होंने तीन दशक से भी ज्यादा समय तक कनोडिया कॉलेज जयपुर में राजनीति विज्ञान पढाया है )