जाति का अनुभव !
( विकास जाटव )
कई बार समूह चर्चा में यह सुनने को मिल जाता है की अब दलित राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के जज, प्रशासनिक अधिकारी, से लेकर काफी उच्च पद प्राप्त कर चुके है. इसलिए अब जातिवाद खत्म हो रहा है. समय बदल चूका है. लेकिन अगर कोई दलित हरिद्वार किसी रिश्तेदार की अस्थि विसर्जित करने जाता है तो उसे इस बात का एहसास जरुर हो जाता है की वो भारतीय धर्म आधारित व्यवस्था में ‘अनुसूचित जाति’ वर्ग से आता है. ऐसे ही;
हरिद्वार में ‘अनसुचित जाति’ के व्यक्ति की अस्थि विसर्जित केवल ‘गंगाराम नाम का व्यक्ति’ ही कर सकता है अगर आपकी कार रूकती है और पता चलता है की आप अस्थि विसर्जित करने आये है तो पंडीत सबसे पहले जाति पूछते है और फिर दलित पता होने पर उसे ‘गंगाराम’ के पास भेजते है. इसका कारण मुझे देवभूमि पत्रिका से यह मिला है की;
“बहुत पुरानी बात है। संत रविदास हरिद्वार आए। पंडितों ने उनका दान लेने से मना कर दिया। पंडित गंगा राम ने कहा मैं आपका दान लूंगा और कर्मकांड संपन्न कराऊंगा। पंडित गोपाल आगे कहते हैं- उस वक्त हंगामा हो गया। ब्राह्मण पंडो ने कहा ऐसा होगा तो आपका सामाजिक बहिष्कार होगा। मगर पंडित गंगाराम ने परवाह नहीं की और संत रविदास से दान ले लिया। संत रविदास ने उन्हें पांच कौड़ी और कुछ सिक्के दान में दिये।
उसके बाद पंडों की पंचायत बुलाकर कई फैसले किए गए। फैसला यह हुआ कि अब से कोई सवर्ण और ब्राह्मण पंडित गंगाराम से कोई धार्मिक कर्मकांड संपन्न नहीं कराएगा। पंडित गंगाराम ने भी कहा कि उन्हें कोई परेशानी नहीं लेकिन वो अपने फैसले पर अडिग हैं और उन्हें कोई पछतावा नहीं है। उसके बाद तय हुआ कि कोई पंडित गंगाराम के परिवार से बेटी-बहिन का रिश्ता नहीं करेगा।
पंडित गोपाल कहते हैं आज भी पंडों की आम सभा गंगा सभा में उन्हें सदस्य नहीं बनाया जाता। तब के फैसले के अनुसार कोई सवर्ण हमसे संस्कार कराने नहीं आता। हमारे पास सिर्फ हरिजन और पिछड़ी जाति के ही लोग आते हैं। पंडित गोपाल कहते हैं पुराने ज़माने में कोई हरिजन हरिद्वार नहीं आता था। एक तो उनके पास यात्रा के लिए पैसे और संसाधन नहीं होते थे दूसरा उन्हें गंगा स्नान से वंचित कर दिया जाता था।
साथ ही पंडा लोग दलित तीर्थयात्रियों का बहिखाता भी नहीं लिखते थे। हरिद्वार आने वाले सभी तीर्थयात्रियों का बहिखाता लिखा जाता था जिससे आप जान सकते हैं कि आपके गांव या शहर से आपके परिवार का कोई सदस्य यहां आया था नहीं। बहरहाल हरिजन का बहिखाता नहीं होता था। लेकिन पंडित गंगा राम ने वो भी शुरू कर दिया। पंडित गंगाराम कहते हैं कि पिछले तीस साल से दलित ज़्यादा आने लगे हैं। दान भी ख़ूब करते हैं। हमारे परिवार का कारोबार भी बढ़ा है। अब हमारे परिवार के चार सौ युवक पंडा का काम कर रहे हैं। हमारी शादियां बाहर के ब्राह्मणों में होती है।
“आब आप चाहे कितने भी उच्च पद पर है तो आपको इसका एहसास हो ही जायेगा की अगर धर्म में रहना है तो वर्ण व्यवस्था व उससे उत्पन्न प्रक्रिया तो माननी ही पड़ेगी. सबसे महत्वपूर्ण यह है की वर्तमान में गंगाराम के वंसज के ४०० लोग इस कार्य को कर रहे है और पिछले ४० सालो में उनकी कमाई में बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है क्युकी ‘बाबा साहब के आरक्षण’ से प्राप्त नौकरी के कारन आजकल दलितों पर पैसा आ गया है और इसका इस्तेमाल कर्मकांड में ज्यादा कर रहे है.
वैसे अवसरवादी दलित या जो लोग अब जातिवाद नही होने की बात कहते है वो लोग इसके बारे में क्या कहंगे की कियु केवल ‘गंगाराम के वंसज’ ही अनुसूचित जातियों का अस्थि विसर्जन करवाता है बाकी कियु मना कर देते है?.