क्या लोग घर बैठे कोविड-19 के लिए कोई जाँच कर सकते हैं ?

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(स्कन्द शुक्ला)
जो भी इन-दिनों कोविड-19 -सम्बन्धी जानकारियों पर ध्यान रखे हुए हैं , वे जानते हैं कि डॉक्टर इस संक्रमण की डायग्नोसिस के लिए मुख्यत: जिस तरीक़े का प्रयोग कर रहे हैं , वह आरटी-पीसीआर है। रोगी या रोगाशंका वाले व्यक्ति के नाक या गले से नमूना लेकर इस जाँच को किया जाता है। 
लेकिन क्या कोविड-19 के बारे में पता करने के लिए कोई और जाँच भी है ? जी हाँ , कई देश जाँच के एक अन्य ढंग सीरोलॉजिकल टेस्ट का भी प्रयोग कर रहे हैं। इस जाँच में सार्स-सीओवी 2 विषाणु के खिलाफ़ शरीर के भीतर बनी एंटीबॉडी नामक प्रोटीनों की जाँच की जाती है। एंटीबॉडी एक प्रकार की रक्षक प्रोटीनें होती हैं , जिनका निर्माण हमारा शरीर अलग-अलग बाहरी शत्रुओं ( जीवाणु , विषाणु , फफूँद ) अथवा भीतरी शत्रु ( कैंसर ) के खिलाफ़ करता है। आइए , इन जाँचों के फ़ायदों-नुक़सानों से थोड़ा अवगत हों। 
किसी भी संक्रमण के होने के तुरन्त बाद एंटीबॉडी तुरन्त नहीं बनतीं , उनके बनने में थोड़ा समय लगता है। इसका अर्थ यह है कि संक्रमण करने वाले विषाणु के शरीर में भीतर दाखिल होने और एंटीबॉडी बनने के बीच का जो समय है , उसमें सीरोलॉजिकल टेस्ट नेगेटिव आएगा। ऐसे में कोविड 19 को इस दौरान पकड़ा न जा सकेगा। एंटीबॉडी इस विषाणु के लिए एकदम विशिष्ट हों , ऐसा भी हमेशा नहीं होता। कई बार निर्मित एंटीबॉडी दो विषाणुओं के खिलाफ़ अन्तर नहीं कर पातीं। ऐसे में सीरोलॉजिकल टेस्ट के के पॉज़िटिव आने पर यह भी हो सकता है कि यह एंटीबॉडी सार्स-सीओवी 2 विषाणु के खिलाफ़ न हो , किसी अन्य पुराने विषाणु-संक्रमण के खिलाफ़ बनी हो। इस तरह से पॉज़िटिव आये सीरोलॉजिकल टेस्ट को डॉक्टर फ़ाल्स यानी झूठा पॉज़िटिव कहते हैं। यानी ऐसे लोगों का टेस्ट तो पॉज़िटिव आ रहा होता है , पर उन्हें कोविड-19 नहीं होता। 
इसके बावजूद दुनिया-भर की ढेरों निजी कम्पनियाँ ( और कई देश भी ) इन सीरोलॉजिकल टेस्टों को प्रमोट करने में लगी हैं। बावजूद इसके कि ये सीरोलॉजिकल टेस्ट आरटी-पीसीआर टेस्ट की तुलना में कई तरह से हीन हैं। आरटी-पीसीआर की तुलना में सीरोलॉजिकल टेस्ट जल्दी हो जाते हैं , इनका नतीजा घण्टे-भर में भी मिल सकता है। फिर इन्हें घर पर स्वयं भी किया जा सकता है। ( यद्यपि आरटी-पीसीआर की जाँच के नमूने भी घर पर स्वयं लेकर लोग सर्टिफ़ाइड लैबों में भेज सकें , इसके भी प्रयास किये जा रहे हैं। ऐसा करने में रोगियों और रोगाशंकितों को अस्पताल नहीं आना पड़ेगा और उनसे अन्य लोगों के संक्रमण का ख़तरा नहीं  पैदा होगा। )
इन सभी जानकारियों के बीच यह प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है कि भारत इतने कम टेस्ट क्यों कर रहा है ? सवा बिलियन की आबादी में टेस्टों की संख्या प्रतिदिन कुछ हज़ार ही रह रही है। ऐसा होने के अनेक कारण विशेषज्ञ बता रहे हैं। जाँच-किटों की कमी इनमें से पहली वजह है। मार्च 19 से पहले हम केवल उन्हीं लक्षणयुक्त रोगियों को टेस्ट कर रहे थे , जिन्होंने विदेशयात्रा की थी अथवा जो लैब-सत्यापित कोविड 19 रोगी के सम्पर्क में आये थे। ऐसा इसलिए किया क्योंकि तार्किक ढंग से सोचा गया कि टेस्ट करने की क्षमता को अत्यधिक टेस्ट करके बर्बाद न किया जाए। लेकिन ज्यों-ज्यों भारत में कोविड-19 के रोगी बढ़ने लगे , सभी न्यूमोनिया-जैसे लक्षणों के लिए कोविड-19 का टेस्ट किया जाने लगा। 
जाँच के लिए अर्हता के नियम भारत में ढीले किये गये , पर अभी भी टेस्टिंग की संख्या कम ही है। जाँच की किटों का कम होना ही इसके लिए उत्तरदायी नहीं। किटों के होने-भर से रोगी या रोगाशंकित की जाँच नहीं हो जाती। उसके लिए किट के साथ पीसीआर मशीन-युक्त उन्नत लैब की भी ज़रूरत होती है। सरकारी व निजी दोनों क़िस्म की लैबों को साथ लिए बिना यह काम मुश्किल था। निजी क्षेत्र का सहयोग लेते हुए किटों के निर्माण व एकत्रित किये गये नमूनों की चिह्नित लैबों में भी अब जाँच आरम्भ की गयी है। 
ख़ूब नमूने जमा हों , किटों का भरपूर प्रयोग किया जाए और ढेर सारी उन्नत लैबों की सहायता लगातार मिलती रहे — ये सारी बातें कोविड-19 व्यक्तियों की पहचान के लिए बेहद ज़रूरी हैं। अब लेकिन इन-सब के बाद अनेक व्यवहारिक समस्याएँ भी हैं। मान लीजिए कोविड 19 की आशंका किसी व्यक्ति को है। अब अस्पताल जाने से वह घबरा रहा है क्योंकि आशंका में दुविधा और द्वन्द्व की स्थिति बनी हुई है। वह यह भी चाहता कि उसके घर-पर नमूना जमा करने वाले विषाणुरोधी परिधान पहनकर पहुँचे और उसके पड़ोसियों को पता चले। ऐसे में वह जाँच ही नहीं कराता , जब तक कि तबियत बहुत नहीं बिगड़ जाती। फिर निजी लैबों की अपनी समस्याएँ हैं। उनके कर्मचारी इस रोग से इतने भयभीत हैं कि इससे सम्बन्धित काम को नहीं करना चाहते। लॉकडाउन के कारण भी नमूनों के एकत्रीकरण में समस्या लैबें बता रही हैं। कई लैबों के पास अपने स्टाफ़ के लिए आवश्यक सुरक्षा के उपकरण भी नहीं हैं।
हम दक्षिण कोरिया नहीं हैं , जहाँ मेडिकल वर्करों ने मरीज़ों के उनकी गाड़ियों में ही बहुत सजग-कर्मठ-व्यापक ढंग से ख़ूब टेस्ट किये और किसी लॉकडाउन की नौबत ही नहीं आयी। हम सिंगापुर भी नहीं हैं , जहाँ आरम्भ से ही सभी इंफ्लुंएजा और न्यूमोनिया-रोगियों में जाँचें की जाने लगी थीं। सिंगापुर ने तो अपना स्वास्थ्य-तन्त्र ऐसी किसी पैंडेमिक की आशंका से जूझने के लिए सन् 2003 के सार्स-संक्रमण के समय से ही तैयार करना आरम्भ कर लिया था। और हाँ , इन दोनों देशों में ये जाँचें मुफ़्त थीं। 
सार्स-सीओवी 2 विषाणु जैसे शत्रु से लड़ने के लिए भारत जैसे वैविध्यपूर्ण किन्तु सीमित स्वास्थ्य-बजट वाले देश की क़दम-क़दम पर अपनी समस्याएँ हैं। 

(डॉ. स्कन्द शुक्ला से साभार)

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