बाबासाहेब अंबेडकर ने राजनीतिक सत्ता से पहले हमेशा सामाजिक, आर्थिक व वैचारिक ताकत पर जोर दिया. अपने जीवन के आखिरी सालों में तो वे जोर देकर कहते थे कि अब राजनीति में उनकी कोई रूचि नहीं है बल्कि भारत को फिर से बौद्धमय करने के लिए धम्म प्रचार ही करेंगे. लेकिन उनके देहांत के बाद तो उनके विचारों को तोड़ मरोड़कर उनके भक्तों ने एक लाइन को ही मूलमंत्र बना दिया कि बाबासाहेब ने कहा था कि ‘सारे तालों की चाबी राजसत्ता है, इससे सारे दुख दूर हो जाएंगे इसलिए येन केन प्रकारेण इस पर कब्जा करो ‘ जबकि उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा.
आजादी के बाद बहुजन समाज में राजसत्ता की अंधी चाह वाले लोग सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में काम किए बिना ही भोले दलितों को राजसत्ता का सब्जबाग दिखाकर उनका शोषण करते रहे. इससे दलितों के दुख तो दूर नहीं हुए राजनेताओं के दुःख जरूर दूर हो गए. पहले तो एक दो पार्टिय़ां ही थी अब तो कुकुरमुत्तों की तरह फैल गई है.हर नेता की अपनी पार्टी है.और विडंबना यह है कि सभी दावा ठोकते है कि अंबेडकर के सपनों को पूरा करने वाली, बहुजनों को प्रगति के मार्ग पर ले जाने वाली उनकी ही असली पार्टी हैं.
एक पार्टी से अलग होने वाला व्यक्ति दूसरे दिन नई कागजी पार्टी खड़ी कर देता है. यहां कोई किसी का नेतृत्व स्वीकार नहीं करता .सब स्वयभूं अध्यक्ष बने हुए हुकुम चलाते हैं. मजेदार बात यह है कि सभी बहुजनों की आजादी का दावा करते हैं लेकिन साथ बैठना तो दूर एक दूसरे की शक्ल देखना नहीं चाहते है. अपने घर के आसपास वार्डमेंबर तक जीत नहीं पाते, एमएलए ,एमपी का भी चुनाव लड़ते है, जमानत बचाना तो दूर सैकड़ा या हजार से वोट कभी ज्यादा नहीं मिलते लेकिन अगले चुनाव में ही दिल्ली की सल्तनत कर कब्जा करने का दावा ठोकते है.
इनका न कोई आर्थिक एजेंडा होता है न सामाजिक,शैक्षणिक दिशा. कोई रात दिन ब्राह्मण को गालियां देने को ही अपना मिशन मानता है तो कोई गांधी को कोसता है. कोई खा पीकर ईवीएम के पीछे पड़ा है तो कोई मनुस्मृति के. कोई खुद को अंबेडकर का सच्चा अनुयायी बताता है तो कोई खुद को अंबेडकर से भी ज्यादा विद्वान साबित करने में सारी ताकत झोंक रहा है।
जो पार्टी कभी बहुजनों का सिरमौर होती थी, सत्ता में भी थी वहां भी अब न अंबेडकर के विचार है न बहुजनों की आर्थिक समृद्धि की कोई योजना, बस अंधभक्ति और येनकेन प्रकारेण सिर्फ एमएलए या मंत्री बनना. ये सभी पार्टिय़ां विरोधी सवर्ण पार्टिय़ों व उनके संगठनों को गालियां तो खूब देती है लेकिन उनके बराबर त्याग व समर्पण में कहीं नहीं टिक पाती हैं.
सबसे अधिक दुखदायी स्थिति यह है कि बहुजनों की इन कथित हितैषी पार्टिय़ों ने बहुजन समाज को एकजुट करने की बजाय अपने नेता की अंधभक्ति व चाटुकारिता में बहुजन समाज में ही वैमनस्य पैदा कर दिया है. दस बीस साल पहले देश में जो सिर्फ अंबेडकरवादी होते थे ,वे अब अपने अपने आका के वादी बन गए हैं और न सिर्फ चुनाव के समय बल्कि आड़े दिनों में भी आपस में बुरी तरह उलझते नजर आते हैं. जोड़ने चले थे लेकिन खुद ही बुरी तरह बिखर गए हैं.
बहुजन समाज किसी राजनेता को अपना मसीहा मानता है ,दूसरों से नाराजगी लेकर भी वह तन,मन,धन सबकुछ अपने नेता को अर्पण करता है लेकिन कुछ साल बाद वह नेता सत्ता से सुख में बहुजनों को भूल जाता है, बहुजन फिर कोई नये नेता को अपना पालनहार मानता है लेकिन वह भी बेवफा हो जाता है और यह सिलसिला अब भी यूं ही जारी है.
आज देश में बौद्धिक वैचारिक युद्ध का वातावरण तेज है. बहुजनों के लिए आगे का समय बहुत विकट नजर आ रहा है. न सरकारी नौकरी ,न खेती, न व्यापार और न रोजगार के साधन. सरकारी क्षेत्र को लगभग खत्म किया जा चुका है.प्राइवेट सेक्टर में कोई घुसने तक नहीं दे रहा है. गांवों शहरों में बहुजन समाज के बेरोजगारों की फौज खड़ी है. समाज एक चौराहे पर बेबस खड़ा है कहीं से कोई आशा की किरण नजर नहीं आ रही है. ऐसे विकट दौर में बाबासाहेब का सपना साकार करने की आशा लिए बहुजन राजनेताओं ,पार्टिय़ों,संगठनों, शासन व समाज में हमारी खुशहाली के लिए काम कर रहे आम व्यक्तियों को चिंतन मनन करना होगा. ऐसे संकट के समय खुद के स्वार्थ को छोडकर गरीब, वंचित, शोषित, उपेक्षित समाज की सामाजिक, आर्थिक ,सांस्कृतिक व वैचारिक समृद्धि के लिए अपने योगदान के लिए आगे आना होगा और इसके बाद जो राजनीतिक सत्ता हासिल होती है वही टिकाऊ व लोकप्रिय होती है. आओ सभी मिलकर बाबासाहेब के सपनों का भारत बनाने में अपना योगदान दें.