संघ के एक स्वयंसेवक द्वारा ‘मैं एक कारसेवक था’ की समीक्षा !
(कमल रामवानी ‘सारांश’) मेरा सौभाग्य रहा है कि पिछले 3 महीने में जो मैंने किताबें पढ़ी है उनके लेखक व्यक्तिगत रूप से मुझे जानते है और उनसे मेरी बातचीत होती रहती है.
सबसे पहले पढ़ी दिल्ली के मित्र ललित कुमार की ‘विटामिन ज़िंदगी’ जो अपने आप मे एक माइल स्टोन साबित हुई है.उसपर समीक्षा लिखना रह गया सो रह ही गया.
दूसरी किताब पढ़ी अजित सिंह दद्दा की लिखी “दद्दा की ख़री ख़री”.दद्दा मेरे लेखन के गुरु है और नियमित मुझे मार्गदर्शन देते रहते.उनकी किताब पढ़कर मैंने उसकी विस्तृत समीक्षा लिखी है.
और अभी अभी खत्म की है मित्र भंवर मेघवंशी की “मैं एक कारसेवक था” जिसकी प्रति भंवर जी ने एक खूबसूरत संदेश के साथ मुझे घर पर आकर भेंट की थी। वे इन दिनों अपनी पुस्तक की सोशल मिडिया पर जबरदस्त और आक्रामक मार्केटिंग कर रहे हैं.
“मैं एक कारसेवक था” किताब भंवर मेघवंशी की आत्मकथात्मक कहानी या सामयिक वृतांत है.यह किताब उनके स्वयंसेवक होने , कार सेवा में भाग लेने, गिरफ्तारी देने, फिर उनके दलित होने की वजह से उनके साथ हुए दुर्व्यवहार की वजह से धीरे धीरे उनके संघ से विमुख होकर एक विद्रोही पत्रकार और फिर एक सोशल एक्टिविस्ट हो जाने की कहानी है.
लेखक ने किताब को विवादित करने के भरपूर प्रयास किये है और कई जगह ऐसे वाक्य डाले है जिससे कोई भी हिंदूवादी आदमी भड़क जाए.
खुद को इतनी बार दलित -शोषित-वंचित और अछूत बताया है कि मेरे जेहन में किताब पढ़ते वक्त लगातार ये बात चलती रही कि इसी अछूत और दलित के साथ मैंने मेरे घर पर दाल-पकवान का नाश्ता किया,जो मेरी पत्नी ने 3 घंटे की मेहनत से बनाया था.
मैंने कभी उनको दलित या वामपंथी के तौर पर नही देखा, उनका फक्कड़-घुमक्कड़ अंदाज़ और भोजन प्रेम मुझे भाता है..क्योंकि मैं एक ट्रेवल और फ़ूड ब्लॉगर हूँ और मुझमे और उनमे सिर्फ ये एक मात्र समानता है.बाकी वो वामपंथी और मैं दक्षिणपंथी.उनको संघ और शाखा से नफरत और मैं संघ के हर कार्यक्रम में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाला खाकी पेंट वाला स्वयंसेवक !
पहले पन्ने से ही उन्होंने संघ के खिलाफ विरोध का डंका बजाया है जो अंतिम पन्ने तक जारी रहता है.यह किताब कई राष्ट्रीय और स्थानीय ऐतिहासिक घटनाओं को समेटे है.जिसमे बाबरी विध्वंस, गोधरा कांड.स्थानीय राजू बैरवा हत्याकांड,कलिंदरी मस्जिद ,बाबरी विध्वंस के बाद कर्फ्यू में हुए 2 शहीदों की अस्थि कलश यात्रा.
ये किताब आपको भीलवाड़ा जिले के मांडल, सिरडियास, ब्रामणो की सरेरी, भीलवाड़ा शहर से लेकर जयपुर, दिल्ली और गुजरात तक घुमाती हैं.
यह एक साधनविहीन व्यक्ति के राष्ट्र पटल पर उभर आने की भी कहानी है.एक स्वयंसेवक के पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट हो जाने की है.किताब में कई बार ऐसा महसूस होता है कि किताब को जबरन विवादास्पद बनाने की कोशिश की गई है,लेकिन शायद लेखक द्वारा चाहा गया वांछित विवाद अभी तक पैदा हुआ नही है.! बहरहाल जिस मुद्दे पर ये किताब लिखी गयी है.उसपर एक बड़ा फैसला हाल ही में आ गया है.
अंत के पन्नो में एक चेप्टर मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत पसंद आया जिसमे भंवर मेघवंशी अपनी सगी पत्नी “प्रेम” और उनके साथ के बारे में बताते हुए लिखते है कि-“पारंपरिक पति पत्नियों की भांति एक दूसरे पर चीखने चिल्लाने का समय हमें मिला ही नही.ना तो एक दूसरे को ‘आई लव यू’ कहकर प्यार जताया और ना ही डोर कभी इतनी खींची की ‘आई हेट यू’ कहने की नौबत आ पाई.”
लेखक मुझसे जितनी तीखी प्रतिक्रिया की उम्मीद कर रहे होंगे उतनी तीखी ये समीक्षा है नही, क्योंकि आजकल मैं राजनीतिक रूप से बिल्कुल सक्रिय नही हूँ और ना ही शाखा में नियमित जा पा रहा हूँ.मेरा पूरा ध्यान ट्रेवल और फ़ूड ब्लॉगिंग पर है और मैं मेरा ध्यान कही और भटकाना भी नही चाहता.
भंवर मेघवंशी का एक अलग प्रशंसक वर्ग है.जो सदैव उनके साथ चलता है, वह तो इस किताब को पढ़ेगा ही, लेकिन अगड़ों और दलितों के संघर्ष के कई पहलुओं को छूती इस किताब को सबको इसीलिए पढ़ना चाहिए कि एक व्यक्ति खुद का निर्माण अपने उसूलों पर रहते हुए कैसे कर सकता है और तमाम असहमतियों के बाद भी गर्व से कह सकता है कि -मैं एक कार सेवक था.
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कमल रामवानी सारांश (ट्रेवल फूडी,ब्लॉगर )