राजस्थानी भाषा की पहली दलित आत्मकथा “च मानी चमार” !
(दुलाराम सहारण)
भारतीय समाज व्यवस्था में भले ही हम जाति-विहीन समाज के कितने ही दावे कर लें पर जाति जमीनी हकीकत है। मानव निर्मित समाज में जाति देह पर चमड़ी की तरह चिपकी है। धर्म बदलो पर जाति नहीं बदलती,गांव, शहर बदल लें, जाति नहीं बदलती। आर्थिक हालात बदल जाएं, पर जाति नहीं बदलती। पढ-लिख लें, पर जातीय सोच नहीं बदलती।
जाति का जाल धर्म के जाल से भी मजबूत है। श्रेष्ठ, हीनता का स्तरीकरण कमाल का है। जाति बाहुल्य में शोषक है तो अल्प में शोषित। कल जो शोषित थे, आज वे शोषक। आज जो शोषित हैं, वे भी शोषक बनने से चूकते नहीं।
ऐसे ही सच से रू-ब-रू करवाती है राजस्थानी भाषा की पहली दलित आत्मकथा “च मानी चमार”। आत्मकथाकार उम्मेद गोठवाल गांव में जन्मे,दलन-शोषण देखा, भोगा। पढाई के बीच शहर में रहे, पढे, भोगा। राजस्थान सरकार में कॉलेज शिक्षा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हुए, जातीय दंश देखा, भोगा।
उम्मेद गोठवाल ने जो देखा, समझा, सुना, जाना वही नहीं, जो होना चाहिए वह भी लिखा है इस आत्मकथा में। वे जातिमूलक समाज में जाति को हीनता नहीं श्रम के गर्व से उच्चारित करते हैं। समाज के सच के सामने सीना तानकर खड़े होते हैं। आत्मविश्वास सौंपते हैं। एक मार्ग निकालते नजर आते हैं।
खुद को श्रेष्ठ और खुद को हीन मानने वाले दोनों जातीय स्तभों के हर एक पाठक को यह किताब पढनी चाहिए, मेरा यह मानना है कि इसमें वह स्वयं को पाएगा, समझेगा, मांजेगा।
उम्मीद है कि राजस्थानी भाषा को यह आत्मकथा और मजबूत करेगी। उम्मीद है कि दूसरे दलित रचनाकार भी अपने स्वानुभव ऐसी ही बेबाकी से सबके सामने लाएंगे तो मराठी, हिंदी की तरह मेरी भाषा राजस्थानी भी क्रांति का सूत्रपात करेगी।
किताब का विवरण-
च मानी चमार/आत्मकथा/राजस्थानी/उम्मेद गोठवाल/2019 प्रथम संस्करण/ 152 पृष्ठ/हार्डबाईंड/300 रुपये/एकता प्रकाशन, चूरू-331001 राजस्थान