लुगदी साहित्य का जादुई संसार
(अनिल जनविजय )
इन किताबों को शरीफ परिवारों में अच्छा नहीं माना जाता था। पर ये किताबें दिखती कम थीं और बिकती ज्यादा थीं। ‘दहेज में रिवॉल्वर’, ‘डायन’, ‘बीवी का नशा’, ‘छह करोड़ का मुर्दा’ जैसी मोटी-ताजी भड़कीली किताबों ने हिंदी पट्टी के रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड से गुजरते हुए आपकी भी निगाह खींची होगी.जो इन्हें नहीं जानते वो इन्हें हिकारत की नजर से देखते हैं. पर इन्हें हलके में ना लें, ये इस तरह के साहित्य को अंग्रेजी में रचने वाले ‘हिट’ लेखक चेतन भगत की सारी किताबों को मिलाकर आई संख्या से चार पांच गुना ज्यादा बिकती है.
इन किताबों को शरीफ परिवारों में अच्छा नहीं माना जाता. पर ये किताबें दिखती कम हैं और बिकती ज्यादा हैं. इन किताबों को छुपकर पढ़ते हुए सिर्फ हमें ही नहीं, बल्कि हमारी कई बुजुर्गवारों को भी उनके पिता और चाचाओं की मारपीट गाली-गुफ्तार का सामना करना पड़ा है.
लुगदी साहित्य क्या बला है ?
कईयों को ‘पढ़ने का चस्का’ लगाने वाली ये किताबें, किसी भी भाषा के लिए पाठक वर्ग तैयार करने का काम करती हैं।रिसाइकल्ड पेपर यानि लुगदी कागज पर छपने की वजह से इसे ‘लुगदी साहित्य’ कहा जाता है। इन किताबों में सिर्फ अपराध और जासूसी की कहानियाँ ही नहीं, बल्कि भूत-प्रेत, शिकार, प्यार और सेक्स से जुड़ी कहानियां भी होती हैं।
सम्मानित हिंदी साहित्य के जलवेदार आलोचकों के ‘फरमे’ में फिट न आने के कारण इस पूरे साहित्य को ही ‘लुगदी’ या ‘लोकप्रिय साहित्य’ कहकर मुख्य साहित्य से खारिज कर दिया गया है। लेकिन सस्ते दाम, भरपूर मनोरंजन और सरल भाषा के चलते ये किताबें आम पाठकों के बीच हमेशा पॉपुलर रही हैं। मजदूरों, कामकाजी-नौकरीपेशा लोगों से लेकर छात्र-छात्राओं और गृहणियों के बीच ये एक जैसी लोकप्रिय हैं।
इन किताबों में कर्नल रंजीत और रिपोर्टर सुनील के जासूसी कारनामे, बैंक डकैतियों, हत्याओं, जिस्म का इस्तेमाल कर के दुश्मनों को धूल चटाने वाली बालाओं, मोहब्बत के लिए जान देने वाले प्रेमियों और खजाने की तलाश में लगे खोजियों का जगमगाता संसार होता है.
अपराध साहित्य का झंडा हर ओर बुलन्द
लोकप्रिय या लुगदी साहित्य पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले अक्सर भूल जाते हैं कि आज की हिंदी को प्रसिद्धि एक लोकप्रिय रचना, बाबू देवकी नंदन खत्री की ‘चंद्रकांता’ से मिली थी। 1888 में आई इस किताब की इतनी चाहत फैली थी कि बहुत से हिंदी ना जानने वालों ने सिर्फ इस किताब को पढ़ने के लिए हिंदी सीखी। चंद्रकांता ने 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में तिलिस्म और अय्यारी का ऐसा जादू बुना कि हिंदी के सबसे चर्चित कथाकार प्रेमचंद ने भी शुरुआत इन्हीं विषयों पर कहानियां लिखने से की थी।
अपराध साहित्य की लोकप्रियता हिंदी तक ही सीमित नहीं है. मराठी में अपराध और फंतासी कहानियां लिखने वाले रत्नाकर मतकरी का दर्जा किसी सेलेब्रिटी से कम नहीं है। मतकरी की कुछ कहानियों का हिंदी अनुवाद करने वाले मुबारक अली बताते हैं, ‘एक ही साल में उनकी हर कहानी संग्रह के कई-कई संस्करण लाने पड़ते हैं, क्योंकि पहला संस्करण देखते ही देखते बिक जाता है. आखिर में पाठक को शॉक देना उनकी कथा की खासियत है।’
वहीं, बांग्ला में भी अपराध साहित्य की समृद्ध परंपरा रही है. सत्यजीत रे जैसे प्रसिद्ध फिल्मकार ने बच्चों के लिए ‘फेलुदा’ किरदार की रचना की थी. जो बच्चों और बड़ों दोनों में सामान रूप से लोकप्रिय हुआ. इस पर कई फिल्में भी बनीं। शरदेंदु बंधोपाध्याय के ‘ब्योमकेश बक्षी’ की आज भी भारतीय अपराध लेखन में खास जगह है. इसके अलावा तमिल और मलयालम में भी लुगदी साहित्य का बोलबाला रहा है।
दुनिया में सबसे ज्यादा उपन्यास लिखने का रिकॉर्ड भी तमिल लुगदी साहित्य लेखक राजेश कुमार के नाम है। इन्होंने अब तक 1500 से ज्यादा उपन्यास लिखे हैं।
चंद्रकांता के बाद
आज़ादी के बाद के दौर में जासूसी साहित्य का जलवा कायम रखने वाले लेखक थे, इलाहाबाद में जन्मे असरार अहमद. (जिन्हें लोग इब्ने सफ़ी के नाम से जानते हैं) इलाहाबाद से छपने वाली नखत पत्रिका में उर्दू व्यंग्य लिखने से शुरुआत करने वाले इब्ने सफ़ी का अपराध लेखन में आना भी एक संयोग ही था। कहते हैं किसी दोस्त ने उनसे शिकायत की थी कि उर्दू में अपराध साहित्य बिना सेक्स के तड़के के नहीं लिखा जा सकता. इस बात को गलत साबित करने के लिए उन्होंने ‘दिलेर मुजरिम’ उपन्यास लिखा जो पाठकों में हिट हो गया। उसके बाद इब्ने सफ़ी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. सफ़ी की ‘जासूसी दुनिया’ सीरीज में 100 से भी ज्यादा उपन्यास हैं। जबकि दूसरी, ‘इमरान सीरीज’ के तहत भी सैकड़ों उपन्यास छपे। उर्दू में लिखने वाले इब्ने सफ़ी की किताबें सिर्फ हिंदी ही नहीं, बल्कि बंगला और अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवादित करके पढ़ीं जाती थीं। अपनी बढ़ती लोकप्रियता के बीच 1950 के दशक में ही वो पाकिस्तान चले गए। महमूद फारुख़ी के अनुसार, ‘इब्ने सफ़ी मजदूरों और कम पढ़े-लिखे लोगों में बहुत लोकप्रिय थे। दोपहर को काम की छुट्टी के बीच कोई एक पढ़ सकने वाला व्यक्ति किताब बांचता और बाकी सब घेरा बनाकर बैठकर उसे सुनते।’
इब्ने सफ़ी के सुपरहीरो
सफ़ी की रचनाओं में अगर कर्नल फ़रीदी, कप्तान हामिद और इमरान जैसे जांबाज, मुल्क्परस्त सीक्रेट एजेंट और जासूस हैं तो सिंह ही, डॉक्टर क्यू, टीथ्रीबी और प्रोफेसर बोगा जैसे सुपर विलेन भी। उनकी सीक्रेट सर्विस के ये किरदार इन खलनायकों की तलाश में यूरोप, अफ्रीका और एशिया ही नहीं बल्कि शकराल, जीरोलैंड और मकराल जैसे काल्पनिक देशों की खाक भी छानते थे। सफ़ी की कल्पना इन देशों और व्यक्तियों का असली लगने वाला ऐसा ताना-बाना बुनती कि पढ़ने वाला हैरान रह जाता था. उनके कई प्रशंसकों का मानना है कि मोगैंबो, शाकाल जैसे विलेन सफ़ी के रचना संसार से प्रेरित हैं। मशहूर शायर फ़रहान अख्तर और पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के जनक अब्दुल कादिर ख़ान भी सफ़ी के प्रशंसकों में शामिल रहे हैं।
और फिर गुलशन नंदा एक ब्रांड बन गए
1960 के दौर में लुगदी साहित्य अपराध, जासूसी और तिलिस्म के चंगुल से बाहर निकलकर रोमांस, सामाजिक मुद्दों और भावनाओं के नए बाजार को फतह करने निकल पड़ा। इस दौर के सितारे थे गुलशन नंदा और रानू जैसे लेखक। रानू और नंदा दोनों ने सामाजिक गैरबराबरी और जीवन के संयोगों के बीच नायक-नायिका के प्यार को आधार बनाकर लिखना शुरू किया।
हालांकि इसमें बाजी मारी गुलशन नंदा ने। अमीर लड़के का गरीब लड़की से या फिर गरीब लड़के से अमीर लड़की का प्यार या फिर इसी तरह की जन्म-जन्मांतर के सच्चे प्यार कहानियों को गुलशन नंदा ने खूबसूरत भाषा में पिरोया।
एन डी सहगल एंड संस प्रकाशन से 1962 से उनके छपने का सिलसिला शुरू हुआ। नंदा के छपने का सिलसिला स्टार पॉकेट बुक्स के अमरनाथ वर्मा के साथ परवान चढ़ा। उस जमाने में रोमांस के रॉक स्टार थे गुलशन नंदा। उनके पहले उपन्यास की दस हजार प्रतियां देखते ही देखते खत्म हो गई थीं। कुछ ही दिनों में उसका रीप्रिंट लाना पड़ा। उन दिनों गृहणियाँ, स्कूल कॉलेज के लड़के-लड़कियां उनके मुरीद थे। ड्रामेटिक और रोमांटिक भावनाओं से भरे इन उपन्यासों में तब बॉलीवुड को अपार संभावनाएं दिखीं।
उनके उपन्यास ‘माधवी’ पर निर्देशक राम महेश्वरी ने 1965 में ‘काजल’ नाम की फिल्म बनाई।
धर्मेन्द्र, मीना कुमारी, पद्मिनी और राजकुमार के अभिनय से सजी ये फिल्म सिनेमाघरों में उतरी तो टिकट के लिए कोहराम मच गया। बॉलीवुड को एक हिट फार्मूला मिल गया और गुलशन नंदा एक ब्रांड बन गए। आने वाले कई वर्षों तक प्रकाशक और निर्देशक उनके इर्द गिर्द चक्कर लगाते रहे ताकि उनका उपन्यास छापने या फिल्म बनाने को मिल सके। 1973 में उनके उपन्यास ‘झील के उस पार’ पर फिल्म और उपन्यास, दोनों लगभग साथ साथ आए थे. इस उपन्यास की लगभग 5 लाख प्रातियां बिकी थीं।
नंदा और रानू की देखा देखी ‘सामाजिक उपन्यास’ कही जाने वाली एक नई केटेगरी ही बन गई, जिसके तहत दहेज, प्यार, मजहब जैसे विषयों पर भावनात्मक और साफ-सुथरे उपन्यास लिखे जाने लगे।
उस दौर में छात्र-छात्राएं और गृहणियां इन उपन्यासों को जम कर पढ़ते और जार-जार रोते थे। बाद में जासूसी और अपराध साहित्य की दुनिया में नाम कमाने वाले लेखकों — वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक ने भी शुरुआत में सामाजिक उपन्यास लिखे थे. राजहंस, प्रेम वाजपेयी, समीर इसी विधा के अन्य नामचीन लेखक थे।
पॉकेट बुक्स का दौर
पिछली सदी के साठवें, सत्तरवें और अस्सी के दशक को लुगदी साहित्य के लिहाज से स्वर्णिम काल माना जाना चाहिए। यही वह समय था जब ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कम्बोज, कुशवाहा कान्त, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे नए लेखकों की एक पूरी फौज ने लुगदी साहित्य के बाजार पर धावा बोला। तरह तरह के किरदार तथा प्लाट पाठकों के सामने आए। जब मख़मूर जालंधरी ने ‘कर्नल रंजीत’ के उपनाम से लिखना शुरू किया तो उनकी देखा-देखी कुछ अन्य लेखकों ने भी यही प्रथा अपनाई।
मेरठ, इलाहाबाद से चलने वाले प्रकाशनों ने पॉकेट बुक्स के माध्यम से सस्ते दाम में इन लेखकों की किताबें छापना शुरू की जो बहुत लोकप्रिय हुईं। साथ ही साथ अंग्रेजी के लेखक जेम्स हेडली चेस और जेम्स बांड सीरीज के उपन्यास भी हिंदी में अनुवादित होकर लुगदी पर छपने लगे। रेलवे स्टेशनों के एएच व्हीलर बुक स्टाल्स ने इन किताबों को देश के कोने कोने में पहुंचाया। पान की गुमटियों और किराने वालों ने कस्बों में ये किताबें किराये पर देनी शुरू कीं और लाखों लाख पाठक लुगदी साहित्य में डूबने उतराने लगे।
कुशवाहा कांत बनारस से लिखने वाले एक लेखक थे. कुशवाहा कांत के बड़े प्रशंसक और एचसीएल में कंप्यूटर इंजीनियर तरविंदर सिंह बताते हैं, ‘उन्होंने मूलतः सामाजिक और प्रेम उपन्यास लिखे. जिनमें अपराध का भी थोड़ा बघार होता था। उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस पर एक उपन्यास और फंतासी को आधार बनाकर ‘दानव देश’ जैसी किताबें भी लिखी. कम उम्र में ही किसी विवाद में उनकी हत्या हो गयी, जिससे उनका रचना संसार करीब चालीस किताबों तक ही सीमित रह गया।’
मज़दूरी करते-करते बने लेखक
‘जनप्रिय लेखक’ का खिताब पाने वाले ओम प्रकाश शर्मा ने ‘जीवित भूत’, ‘ट्रेन डकैती के अपराधी’, ‘पाप की परछाई’ जैसे 400 से अधिक उपन्यास लिखे। जीवन के शुरुआती दौर में खुद मजदूरी करने वाले ओम प्रकाश शर्मा एक वामपंथी मज़दूर संगठन से जुड़े हुए थे। खाली समय में सस्ता मनोरंजन उपलब्ध कराकर मजदूरों को शराब-जुए जैसी बुराइयों से दूर रखने के उद्देश्य से उन्होंने लिखना शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
लोग कहते हैं की शर्मा जी शर्त लगाकर किसी भी विषय या वस्तु पर लिख सकते थे। एक बार एक मजदूर की कटी उंगलियां दिखाकर उनके एक मित्र ने उन्हें इस पर उपन्यास लिखने की चुनौती दी और ओमप्रकाश शर्मा ने इस विषय पर भी उपन्यास लिख दिया। राजेश, जगत, जगन जैसे पात्रों के रचनाकार ओम प्रकाश शर्मा के प्लाट काफी सरल होते थे। किसी एक जगह पर कुछ अपराधी अपराध करते थे और ‘केंद्रीय खुफिया ब्यूरो’ जैसी संस्थाओं से जुड़े उनके पात्र इस अपराध को हल करके दोषियों को सजा दिलवाते थे।
वेद प्रकाश शर्मा का ‘वर्दी वाला गुंडा’
लुगदी साहित्य को लोकप्रियता के चरम तक पंहुचाने का काम किया सुरेंद्र मोहन पाठक और वेद प्रकाश शर्मा ने। राजीव गांधी हत्याकांड पर आधारित शर्मा के उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान बनाए और इसकी लगभग पंद्रह लाख प्रतियां बिकीं.
‘विजय-विकास सीरीज’ के लेखक वेद प्रकाश कम्बोज से प्रेरणा लेने वाले शर्मा ने ‘विधवा का पति’, ‘सुलग उठा सिंदूर’, ‘आग लगे दौलत को’ जैसे ‘सामाजिक’ और थ्रिलर, दोनों ही तरह के उपन्यास लिखे।
पाठक का ‘खोजी पत्रकार’ सुनील
वहीं सुरेन्द्र मोहन पाठक ने अपनी ‘विमल सीरीज’ के माध्यम से बम्बई माफिया को हिंदी पाठकों के बीच पहुंचाया। इनके उपन्यासों में अपराध ओम प्रकाश शर्मा की कहानियों की तरह कुछ ‘बुरे लोगों’ की करतूत भर नहीं होता, बल्कि समाज और कानून के बड़े महंतों की मिलीभगत से चलने वाला सिस्टम होता है।
जहां उनका उपन्यास ‘गवाही’ पुलिस महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार पर आधारित है. वहीं उनके किरदार भी ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ के खांचों से बाहर के लोग हैं। कई हत्याओं का जिम्मेदार और कई राज्यों में वांछित ‘विमल’ उनका एक ऐसा किरदार है जो अपराधी होकर भी पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कई बार अपनी जान दांव पर लगाता है। ‘टॉप का दिल्लीवाला हरामी’ सुधीर उनका एक दूसरा किरदार है जो ‘औरतखोर’ और ‘शराबखोर’ होने के बावजूद इंसानियत से लबरेज है।
‘खोजी पत्रकार’ को लुगदी साहित्य में पहली बार नायक बनाने वाले सुरेंद्र मोहन पाठक अब तक इसी पात्र ‘सुनील’ के लगभग दो सौ से अधिक उपन्यास लिख चुके हैं, जबकि उनकी कुल रचनाओं की संख्या 300 से अधिक है।
इसके अलावा ‘बैंक डकैत देवराज चौहान’ का किरदार रचने वाले अनिल मोहन जैसे लेखक भी बाद के दौर में खासे लोकप्रिय हुए.
साथ ही साथ अपने शरीर का इस्तेमाल करके देश के दुश्मनों को मात देने वाली सीक्रेट एजेंट ‘रीमा भारती’ के उपन्यास और परशुराम शर्मा के ‘डायना’, ‘बाज़ीगर’ जैसे पात्रों से सजे उपन्यास भी बाजार में आए. इनमें सेक्स प्रसंगों की भरमार होती थी।
नब्बे के दशक से पॉकेट बुक्स और लुगदी की उलटी गिनती शुरू हो चुकी थी. वैश्वीकरण के बाद केबल टीवी, स्मार्टफोन और सीडी के हमलों ने लुगदी की दुनिया उजाड़ दी, क्योंकि सस्ता मनोरंजन पाने के कई और आसन विकल्प सामने आ गए थे।