धर्मों के भगवान ने जब दुनिया बनाई गई …!

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– संजय जोठे
बाइबल के भगवान ने जब दुनिया बनाई तो सभी इंसानों को एकसमान बनाया, न केवल एकसमान बनाया बल्कि सभी इंसानों को अपनी शक्ल में बनाया. मतलब कि सभी इंसान और बाइबल का भगवान एकसमान हैं ये सब हॉरिजोंटल तरीके से एकसाथ हैं.
इधर वेदों उपनिषदों के भगवान ने दुनिया बनाई तो इंसानों की चार श्रेणियां बनाईं जो एक पदानुक्रम में बंधी हैं, ये वर्टिकल ढंग से ऊपर से नीचे बांटे गए हैं. न केवल इस भगवान और इंसान में अंतर है बल्कि इंसानों के बीच भी उतना ही अंतर है.
जब यूरोपीय दार्शनिकों विचारकों ने सभ्यता और बदलाव की इबारत लिखनी शुरू की तो उन्होंने बाइबल के भगवान् के वचन का ठीक से इस्तेमाल किया. शोषण, गुलामी और जहालत के खिलाफ आवाज उठाते हुए उन्होंने कहा कि जब भगवान् ने हमें एक बनाया है तो चर्च या पोप को क्या अधिकार है हमारे बीच अंतर पैदा करने का?
यूरोप में चर्च या पोप को टक्कर देने के लिए उन्होंने अपने भगवान् को इस तरह इस्तेमाल किया. और वे बहुत दूर तक सफल रहे. बाइबल का भगवान्  छः दिन काम करके सातवें दिन आराम करता है. ये एक इंसानी मजदूर के काम करने का ढंग है. यहाँ बाइबल का भगवान खुद को इंसान की तरह पेश कर रहा है. इसीलिये यूरोप के धार्मिक इतिहास में जीसस ने मजदूरों और गरीबों को सबसे पहले गले लगाया था. यहाँ जीसस अपने इश्वर की आज्ञा का पालन कर रहे हैं.
इधर भारतीय भगवान् ने भारतीय विचारकों के लिए बदलाव का कोई स्कोप ही नहीं छोड़ा. कोई भी भारतीय ईश्वरवादी धर्मगुरु या आस्तिक दार्शनिक ब्रह्मपुरुष और उसके चार वर्णों को हिन्दू तत्वदर्शन के धरातल पर चुनौती ही नहीं दे सकता. यहाँ ऐसी चुनौती के लिए कोई स्कोप ही नहीं है. भारतीय दार्शनिकों ने इंसानों की श्रेणियों को बनाये रखा और उनमे दूरी बनाये रखते हुए इस भेदभाव को धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक ढंग से भी समझाने की कोशिश की. असल में भारतीय गुरु और दार्शनिक अपने इश्वर की आज्ञा का पालन कर रहे हैं.
इसीलिये भारतीय दार्शनिकों ने समाज में मौलिक बदलाव के लिए कुछ नहीं किया बल्कि ऊपर ऊपर व्याख्याएं बदलने का काम किया. यूरोप से संपर्क बढ़ने तक सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा की ह्त्या, अस्पृश्यता, शूद्रों अस्पृश्यों और स्त्रीयों के लिए शिक्षा की पाबंदी आदि जारी रही.
इसका नतीजा सामने है.
यूरोप धीरे धीरे सभ्य होता गया और भारत असभ्यता और जहालत की दलदल में गहराई से धंसता गया. आधुनिक जमाने के गुरु और संत भी यूरोपीय शिक्षा के बावजूद वर्ण और जाति को खुली चुनौती देने में एकदम असमर्थ रहे हैं.
गांधी और ओशो रजनीश जैसे आधुनिक महात्माओं और गुरुओं ने भी वर्ण विभाजन  और जाति की मूल संरचना को समर्थन दिया है. गांधी वर्ण और जाति दोनों के समर्थक रहे हैं और ओशो रजनीश कृष्ण पर बोलते हुए वर्ण व्यवस्था को वैज्ञानिक व्यवस्था बताते हैं.
अब इसका नतीजा आ रहा है. भारत के सभ्य होने का प्रोजेक्ट कठिन से कठिन होता जा रहा है.

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