इंसान स्वार्थ व खाने के लालच में कितना गिरता है उसका नमूना होती है सामाजिक कुरीतियां। ऐसी ही एक पीड़ा देने वाली कुरीति वर्षों पहले फैलाई गई थी वो है मृत्युभोज. मानव विकास के रास्ते में यह गंदगी कैसे पनप गयी, समझ से परे है। जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर दुःख प्रकट करते हैं, इंसानी दिमाग की करतूतें देखो कि यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं। किसी घर में खुशी का मौका हो,तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर,खिलाकर खुशी का इजहार करें,खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाईयाँ परोसी जायें, खाई जायें,इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें?
जब मैंने समाज के बुजुर्गों से बात की व इस कुरीति के चलन के बारे में पूछा,तो उन्होंने बताया कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे। मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे। परिजन बिछुड़ने के गम को भूलने के लिए मानसिक सहारा दिया जाता था।
लेकिन आज हम कहाँ पहुंच गए ? परिजन के बिछुड़ने के बाद उनके परिवार वालों को जिंदगी भर के लिए एक और जख्म दे देते है।जीते जी चाहे इलाज के लिए 2,00 रुपये उधार न दिए हो, लेकिन मृत्युभोज के लिए 6-7 लाख का कर्जा ओढ़ा देते है। ऐसा नहीं करो तो समाज में इज्जत नहीं बचेगी! क्या गजब पैमाने बनाये हैं हमने इज्जत के? इंसानियत को शर्मसार करके, परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना!
कहीं-कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम की मनुहार भी करनी पड़ती है। इसका खर्च मृत्युभोज के बराबर ही पड़ता है। जिनके कंधों पर इस कुरीति को रोकने का जिम्मा है वो नेता-अफसर खुद अफीम का जश्न मनाते नजर आते है। कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है। कपड़े, केवल दिखाने के,पहनने लायक नहीं। बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस समाज में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी? बच्चे कैसे पढ़ेंगे?बीमारों का इलाज कैसे होगा?
घिन्न आती है जब यह देखते हैं कि जवान मौतों पर भी समाज के लोग जानवर बनकर मिठाईयाँ उड़ा रहे होते हैं। गिद्ध भी गिद्ध को नहीं खाता! पंजे वाले जानवर पंजे वाले जानवर को खाने से बचते है। लेकिन इंसानी चोला पहनकर घूम रहे ये दोपाया जानवरों को शर्म भी नहीं आती, जब जवान बाप या माँ के मरने पर उनके बच्चे अनाथ होकर, सिर मुंडाये आस-पास घूम रहे होते हैं और समाज के प्रतिष्ठित लोग उस परिवार की मदद करने के स्थान पर भोज कर रहे होते हैं !
जब भी बात करते है कि इस घिनौने कृत्य को बंद करो ,तो समाज के ऐसे-ऐसे कुतर्क शास्त्री खड़े हो जाते है कि मन करता है कि इसी के सिर से सिर टकराकर फोड़ दूं! इनके तर्क देखिए- माँ बाप जीवन भर तुम्हारे लिए कमाकर गये हैं, तो उनके लिए हम कुछ नहीं करोगे ? इमोशनल अत्याचार शुरू कर देते है! चाहे अपना बाप घर के कोने में भूखा पड़ा हो,लेकिन यहां ज्ञान बांटने जरूर आ जाता है!
हकीकत तो यह है कि आजकल अधिकांश माँ-बाप कर्ज ही छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी जीवन भर की कमाई भी तो कुरीतियों और दिखावे की भेंट चढ़ गयी। फिर अगर कुछ पैसा उन्होंने हमारे लिए रखा भी है,तो यह उनका फर्ज था। हम यही कर सकते हैं कि जीते जी उनकी सेवा कर लें। लेकिन जीते जी तो हम उनसे ठीक से बात नहीं करते। वे कोसते रहते हैं,हम उठकर दवाई नहीं दे पाते हैं।अचरज होता है कि वही लोग बड़ा मृत्युभोज या दिखावा करते हैं, जिनके माँ-बाप जीवन भर तिरस्कृत रहे।
खैर! चलिए, अगर माँ-बाप ने हमारे लिए कमाया है,तो उनकी याद में हम कई जनहित के कार्य कर सकते हैं, पुण्य कर सकते हैं। जरूरतमंदो की मदद कर दें,अस्पताल-स्कूल के कमरे बना दें,पेड़ लगा दें। परन्तु हट्टे-कट्टे लोगों को भोजन करवाने से कैसा पुण्य होगा ? कुछ बुजुर्ग तो दो साल पहले इस चिंता के कारण मर जाते है कि मेरी मौत पर मेरा समाज ही मेरे बच्चों को नोंच डालेगा! मरने वाले को भी शांति से नहीं मरने देते है!
इनसानियत पहले से ही इस कृत्य पर शर्मिंदा है,अब और मत करो। किसी व्यक्ति के मरने पर उसके घर पर जाकर भोजन करना ही इंसानी बेईमानी की पराकाष्ठा है और अब इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद तो यह चीज प्रत्येक समझदार व्यक्ति को मान लेनी चाहिए। गाँव और क़स्बों में गिद्धों की तरह मृत व्यक्तियों के घरों में मिठाईयों पर टूट पड़ते लोगों की तस्वीरें अब दिखाई नहीं देनी चाहिए। समाज के इस नशे को मिटाना ही हम सब को एक चुनौती के तौर पर लेते हुए इसके विरुद्ध तत्काल मुहिम चलाने के लिए कठोर माप दंड के साथ आगे आना चाहिए !