कहां है संस्कृति के रक्षक ?
( डॉ. संदीप कुमार मेघवाल, स्वतंत्र कलाकार, उदयपुर )
संज्ञान में आया कि सरकार के पास कला और कलाकारों के संरक्षण के लिए कोई बजट नहीं है। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण मामला है कि ललित कला अकादमी को संस्थान में कार्यरत कर्मचारियों को वेतन भुगतान जितना ही बजट दिया जा रहा हैं। आगामी दिनों में कोई भी कार्यक्रम जैसी कलात्मक गतिविधियां देखने को नहीं मिलेगी।
संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली सभी संस्थाओं के अमूमन यही हाल है। सभी संस्थाएं ले देकर वेबिनार तक सीमित हो गई हैं। ख़ूब वेबीनार हुए जा रहे हैं। जिससे निकले निष्कर्ष को जमीनी तौर पर कभी लागू होते नहीं देखा। सिर्फ सफल आयोजन हुए जा रहे हैं। बहुतेरे कलाकार भी खुशी के मारे सोशल मीडिया पर खूब सर्टिफिकेट लहरा रहे हैं। सिर्फ सर्टिफिकेट ही बेटरोगे या भविष्य के लिए ब्रेड बटर का इंतजाम भी करोगे? कुछ सक्षम API धन इक्कठा कर रहे हैं। पर उन उभरते कलाकारों और ठेठ देहाती जनजाति कलाकारों का क्या होगा? कई मोन साधे हुए कई को भविष्य के पद्म श्री तो किसी को पद्मभूषण से नाम कटने का डर लगा रहता है, खैर यह सच्चाई भी है। क्या करे…जी है जो कभी भरता ही नहीं यार।
कला और कलाकारों के लिए कोई बजट नहीं है आगे से कोई भी प्रोग्राम नहीं होंगे। लेकिन कोई राहत पैकेज भी नहीं है। जबकि विश्व भर में कलाकारों के लिए राहत पैकेज दिए जा रहे हैं। सभी जगह दुरस्त कदम उठाएं जा रहे हैं। लेकिन हमारे देश में कलाकारों के बहुत खराब हाल हैं। ख़ासकर लोककलाकार एवं नवुदित कलाकारों के। खुद ललित कला अकादमी के अध्यक्ष यह बयान दे चुके हैं। सरकार का कलाकारों के प्रति इस तरह का रवैया ठीक नहीं है। जब आपको विदेशी मेहमानों को सबकुछ अच्छा-अच्छा सा दिखना होता है, तब हमारी कला को दिखाकर मेहमानों के सामने बहुत तारीफे बटोर लेते है। जब आपको हमारी सुध लेनी होती हैं तब आपको क्यूं सांप सूंघ लेता हैं। बड़े बड़े दावे किए जाते है संस्कृति बचाने को लेकर क्या इसी तरह बचा रहे हो आप? लोकल फॉर वोकल की बात हो रही हैं।सिर्फ भाषण देने मात्र से कला संस्कृति बच जाएगी या धरातल पर काम भी होगा। काश भाषण से ही ब्रेड बटर बरसता तो भी कलाकार जीवन बचा लेते।
कला संस्कृति समर्पित कई संस्थान बने हुए हैं जो सिर्फ उनका गुणगान ही करते दिखते हैं। आप स्वतंत्र होकर सामने क्यूं नहीं आते किसको बचाने की बात करते हों? इतना डरे हुए क्यों हों? बहुत सारे सवाल है क्या होगा उन जनजाति कला का जिस पर आप बहुत गर्व करते हों। हां सिर्फ गर्व ही करते हों? कई कलाएं ओर कलाकार इस कोरोना की भेंट चढ़ चुकी हैं कोई सुध लेने वाला नहीं है।
जनजाति कलाकारों के बहुत बुरे हाल है आपके पास कोई कलाकारों की लिस्ट नहीं है आप संपर्क तक नहीं कर सकते हैं। आपने उनको कभी उस लायक समझा ही नहीं।
खैर…. दक्षिण राजस्थान में भील जनजाति द्वारा प्रतिवर्ष गवरी नाट्य खेल का आयोजन होता है। यह सदियों से खेला जा रहा हैं। कोरोना की वजह इस वर्ष नहीं खेला गया। इस गवरी खेल में हजारों की संख्या में जिंदा कलाकार हैं। इसकी कभी कोई लिस्टिंग नहीं हुई। इनके लिए कोई राहत पैकेज नहीं है यह अपने आप में एक अद्भुत नाट्यशास्त्र है। किसी भी प्रमुख संस्था का इस और ध्यान नहीं गया।
कई कलाएं ऐसे ही दम तोड़ती आई है, और इस कोरोना की मार में और भेंट चढ़ गई। जिम्मेदार संस्थाओं ने बजट गेंद को सरकार के पाले में डाल दी हैं।
खैर बजट तो इस बार ही नहीं दिया गया है, लेकिन बरसो से तो बजट मिल ही रहा था। फिर क्या हुआ, कहां खपा? यह जानना आवश्यक हैं। क्या यह कला ऐसे ही दम तोड़ देगी किसके हवाले छोड दिया है इनको कौन है जिम्मेदार?
( फोटो रचनाकार स्वयं द्वारा गवरी वलावन के समय लिया गया है )