सबसे बड़े दलित साहित्यकार तो रवींद्रनाथ टैगोर है !
( पलाश विश्वास )
दुनिया के सबसे बड़े दलित साहित्यकार रवींद्रनाथ टैगोर जो जन्म से अछूत पिराली ब्राह्मण थे और इसी अस्पृष्यता के दंश से बचने उनका परिवार कोलकाता चला आया।
प्रिंस द्वारका नाथ ठाकुर के लन्दन शेयर बाज़ार में स्टॉक और टैगोर परिवार की ज़मींदारी के बावजूद हिन्दू समाज में बहिस्कृत अछूत थे वे लोग।ब्रह्म समाज की स्थापना के बाद टैगोर परिवार म्लेच्छ हो गया।
टैगोर को आलोचक और साहित्यकार कवि तक मानने को तैयार नहीं थे।रवीन्द्र तन मन से बाउल थे।धम्म उनका दर्शन था।अंध राष्ट्रवाद के वे खिलाफ थे।वे स्त्री स्वतन्त्रता के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं।
उनकी आत्मा थी चण्डलिका। चंडाल कन्या। चंडाल आंदोलन के संदर्भ में चन्डालिका को देखें।हर स्त्री उनके लिए चंडाल कन्या थीं, जिनकी मुक्ति की लड़ाई उनकी रचनाधर्मिता थी।
वे मजदूरों किसानों के राज का सपना उसी तरह देखते थे,जैसे शहीदेआजम भगत सिंह (सन्दर्भ- रूस की चिट्ठी )नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद टैगोर परिवार का कायाकल्प हो गया और टैगोर गुरुदेव बन गए। उनका परिवार बंगाल का सबसे कुलीन परिवार हो गया।रवींद्र की गीतांजलि में भी इसी अस्पृश्यता के धर्म के खिलाफ विद्रोह है।
दलित विमर्श, दलित साहित्य और दलित आंदोलन के बात कहने लिखने वाले बेदखल रवींद्र विरासत का पहले अनुसन्धान करें तो शायद हीनताबोध के अभिशाप से मुक्ति मिले और मालूम पड़े कि दलित साहित्य ही साहित्य की मुख्य धारा है।
बौद्ध साहित्य उनकी रचनाओं का मुख्य स्रोत रहा है। वेद उपनिषद नहीं,जैसा कि वर्चस्ववादियों का दावा है।उनकी हर महत्वपूर्ण रचना में गुंजती थी-“बुध्दम शरणम गच्छामि”