कोरोना : अनिश्चय और भय से उपजा व्यापार और व्यापार-क्षय !
(Skand Shukla)
रोग का महामारी-स्वरूप सामाजिक अनिश्चय के लिए खाद-पानी है। जिस तरह से रोगियों की संख्या में वृद्धि होती है , उसी तरह से समाज में अनिश्चितता भी बढ़ती जाती है। वर्त्तमान कोरोना-पैंडेमिक के मामले में भी यही हो रहा है। जो लोग दिन-रात टीवी अथवा सोशल मीडिया पर चिपके हुए हैं , उनमें यह अनिश्चय और भय अधिक देखे जा रहे हैं : उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि संसार समाप्त होने को है।
किसी भी समस्या के प्रति लापरवाही सही नहीं कही जा सकती। किन्तु रोगों के प्रति जागरूकता और उनको लेकर फैली भयातुरता , दो अलग-अलग बातें हैं। ऐसे में जिस तरह से मीडिया ऐसे संवेदनशील मामलों का कवरेज करती है , वह महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बिना किसी सनसनी और अकारण शोरशराबे के तथ्यपरक जानकारियाँ ही लोगों के लिए मददगार हैं।
रोग मनुष्य और समाज की जिन अनेक तैयारियों की परीक्षा लेता है , उसमें एक मनोव्यवहार भी है। जहाँ अनिश्चितता होगी , वहाँ लोग घबराएँगे। कारण कि मस्तिष्क का काम लोगों को उनके आसपास के माहौल के विशेष में जानकारियाँ मुहैया कराना है। यह सर्वाइवल का हिस्सा है। यदि व्यक्ति अपने इर्दगिर्द की गतिविधियों को जानेगा नहीं , तो वह उनसे बचाव कैसे करेगा ? वह सुरक्षा-असुरक्षा के निर्णय कैसे लेगा ?
इसलिए मस्तिष्क के अनुसार अनिश्चितता = संकट। जितनी अनिश्चितता , उतना बड़ा संकट। मस्तिष्क का काम यह भी है कि वह बुरे-से-बुरा सोचेगा। कोरोना-संक्रमण के मामले में भी वह यही कर रहा है। वह संक्रमित होते लोगों की संख्या की तुलना में मृत्यु को नहीं देख रहा , वह अन्य साँस के रोगों की तुलना में कोरोना की मृत्यु-दर को नहीं समझ रहा , वह केवल यह सुन और समझ रहा है कि कोरोना-संक्रमण से कहाँ और कौन दिवंगत हो गया है। यह मानव-स्वभावगत व्यवहार है। सर्वाधिक बुरा सोचो , ताकि उससे निबट सको।
कई शोध बताते हैं कि दर्द से अधिक बेचैन मनुष्य को यह घटनाओं से सम्बद्ध अनिश्चितता करती है। किसी को सुई चुभनी हो , तो सुई से उसे उतना डर नहीं लगता जितना अनिश्चितता से लगता है। ‘आपको बिजली का झटका दिया जाएगा’ — कम डराता है। ‘आपको बिजली का झटका दिये जाने के चांस पचास प्रतिशत हैं’ — अधिक आतुर करता है। नौकरी चले जाने से अधिक ‘नौकरी रहेगी कि जाएगी’ का मनोभाव सताता है। यहाँ तक कि किसी कार-दुर्घटना के बाद भी लोग जोखिम लेना उतना कम नहीं करते , जितना वे बार-बार मिलने वाले मनोव्यावहारिक पीड़ाओं के बाद करते हैं।
कोरोना-विषाणु का सत्य अत्यधिक संक्रामकता के साथ बहुत न्यून मृत्यु का सत्य है। रोग का फैलाव अत्यधिक , किन्तु मरने की आशंका बहुत कम। ऐसे में लोग उस न्यूनता को भी अपने लिए सोचने लगें , यह भी स्वाभाविक है। किन्तु फिर ऐसे में इस तरह के आतुर व्यक्ति से पूछना चाहिए कि क्या आप जीवन के सभी क्षेत्रों में इतनी ही जीवनपरक आतुरता प्रदर्शित करते हैं ? हेलमेट न लगाने और सीटबेल्ट न पहनने से उपजी मृत्यु की आशंका पर आपने कितना ध्यान दिया है ? भोजन-नशा-नींद की समस्याओं से होने वाले मृत्युकारी रोगों पर आप कभी इतने सजग हुए हैं ?
नया संकट अनिश्चितता अधिक लाता है। नवीनता डर का व्यापार भलीभाँति जानती है। इस समय भय का व्यापार चल रहा है और सुरक्षा-तले चलने वाले सुखकारी व्यापार का क्षय हो गया है।
— स्कन्द शुक्ला (लेखक पेशे से डॉक्टर है)