केवल मूंछे मरोड़ने वाला नेतृत्व क्या भला करेगा ?
-मनोज भारती इतना तो तय है कि बहुजन समाज के नौजवानों को अब मूछें मरोड़ने वाला नेतृत्व आकर्षित करने लगा है। घिसे पिटे नेतृत्व से उसका मोहभंग हो रहा है। पर क्या सिर्फ मूछें मरोड़कर, आँय बाँय साँय फैसले लेकर ही अपने अभीष्ट को पाया जा सकता है? रातों रातसुर्खियों में आना अलग बात है, उस ग्लैमर/लोकप्रियता को अंजाम तक पहुँचाना अलग बात है। आपके एक आह्वान पर लाखों की भीड़ इकट्टा हो जाती है, अच्छी बात है,पर उस भीड़ कोसही दिशा न देना गलत बात है।यदि आप समझते हैं कि आप सिर्फ जेल जाने की वजह से लोकप्रिय हुए हैं तो शायद आप भूल रहे हैं कि अभी भी बहुत से नौजवान जेलों में पड़े हैं। भीड़ और आंदोलनकारी के अंतर को समझना चाहिए। फिर जब मामला विधिक हो तो यह समझ निहायत ही जरूरी है। कोई हक नहीं है आपको युवाओं का भविष्य बर्बाद करने का। आप फेमस हो चुके हो। अब आपको अपना मजबूत नेटवर्क बनाना चाहिए। कोई कहीं से आता है, कोई कहीं से। न किसी के खाने पीने का कोई इंतजाम है ,न महिलाओं की सुरक्षा आदि का। अंबेडकर भवन, गुरुद्वारे कहाँ नहीं हैं? वो किस दिन रात के लिए हैं? तमाम सरकारी कर्मचारी और खाते पीते लोग हैं।आप चंदा लीजिए उनसे। सबसे पहले मेरे से ले लीजिए। व्यापक योजना बनाईये। शोषण एक दिन की बीमारी है? जो एक दिन में चली जायेगी। नहीं साहब यह सतत लड़ाई है जिसको सदियों से लड़ा जा रहा है। हम और आप उसमें बूंद भर ही योगदान कर रहे हैं बाल्टी भर नहीं। कमी स्वयंसेवकों की नहीं है। कमी नेतृत्व की है। अफसोस मान्यवर कांशीराम साहब के बाद बहुजन अनाथ हो गया है। क्या आप दूसरा कांशीराम बनने की चाहत रखते हैं? यदि हाँ तो पहले आप इस भीड़ को आंदलनकारियों में तब्दील कीजिए। जब तक हमें हमारा गौरव मिल नहीं जाता तब तक संघर्ष जारी रहना चाहिए। कभीं शांतिमार्च, कभीं अनशन तो कभीं प्रदर्शन। याद रहे कोई चीज एक दिन में बिगाड़ी तो जा सकती है पर एक दिन में बनाई नहीं जा सकती। |