डॉ. अंबेडकर और भारतीय महिलाओं के लिए उनका योगदान !
(प्रेमचंद गांधी )
‘मैं महिलाओं द्वारा चलाए जाने वाले आंदोलनों में गहरा विश्वास रखता हूं। उन्हें अगर सही ढंग से विश्वास में लिया जाए तो वे आज के तकलीफदेह सामाजिक माहौल को पूरी तरह बदल सकती हैं। अतीत में उन्होंने निम्न वर्ग के उत्थान में बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया है।‘
‘मैं किसी समाज की उन्नति को इस आधार पर मापता हूं कि उस समाज में स्त्रियों की प्रगति कितनी हुई है।‘
‘महिलाओं को साथ लिए बिना किसी भी प्रकार की एकता व्यर्थ है। शिक्षित स्त्री के बिना शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है और महिलाओं की शक्ति के बिना किसी भी प्रकार का प्रतिरोध बेमानी है।‘
-डॉ. अंबेडकर
भारतीय समाज में सदियों पुरानी एक विचार परंपरा काम कर रही है जिसके तहत किसी भी व्यक्ति, दर्शन, घटना, अंचल आदि को सूत्रबद्ध कर एक खास तरह की उपाधि या अपमानजनक अवधारणा से इस तरह बांध दिया जाता है कि सब कुछ उसी में समाहित हो जाता है। इस अवधारणा का शिकार हमारे देखते-देखते गांधी, नेहरू और अंबेडकर इस कदर हुए हैं कि एक वर्ग विशेष के लोगों ने इन महापुरुषों को इस विशाल देश के पतन का सबसे मुख्य अपराधी घोषित कर दिया है। पिछले कई वर्षों से देश के अलग-अलग हिस्सों से अंबेडकर की मूर्तियां तोड़ने, उनकी प्रतिमाओं पर कालिख पोतने और उनके बारे में तरह-तरह का दुष्प्रचार कर उनको अपमानित करने की जो घटनाएं प्रकाश में आती रही हैं, वे सब यही बताती हैं कि बाबा साहेब अंबेडकर के व्यक्तित्व और विचारों से असहमति इस देश में एक भयानक घृणा का रूप ले चुकी है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि हमारे देश की आधी आबादी यानी महिला जगत को इस बाबत शायद बहुत कम जानकारी है कि डॉ. अंबेडकर के पूरे जीवन संघर्ष में जिस समानता आधारित समाज के निर्माण की परिकल्पना थी, उसका पूरा आधार ही स्त्री-मुक्ति था। जाति-धर्म और लिंग आधारित शोषण की समाप्ति बाबा साहेब के दर्शन में पूरी तरह महिलाओं की आजादी से ही संभव थी। इसलिए डॉ. अंबेडकर के अपमान की कोई घटना हो तो मेरे हिसाब से उसका प्रतिकार सबसे पहले स्त्रियों की ओर से होना चाहिए। क्योंकि महिलाओं के लिए बाबा साहेब ने जो काम किए और जो काम वे करने वाले थे, उनके बिना भारतीय समाज में स्त्री-मुक्ति का स्वप्न अधूरा ही रहता। आज भारतीय महिलाओं की जो भी बेहतर स्थिति है उसके मूल में डॉ. अंबेडकर के कठोर निर्णयों से बने कानून और स्त्रियों को मिले बेशुमार अधिकार हैं।
यह हमारे समाज की अज्ञानता ही है कि हमने बाबा साहेब अंबेडकर को महज ‘दलितों का मसीहा’ और ‘संविधान निर्माता’ जैसी पदावली में रिड्यूस कर दिया है। अगर आप ठीक से अंबेडकर को जानें और पढ़ें तो पता चलेगा कि भारतीय समाज के सर्वांगीण विकास को लेकर उनकी अपनी एक विशेष दृष्टि थी, जिसका अंश मात्र हम भारतीय समाज में आज देख पा रहे हैं। यदि सिर्फ महिलाओं को लेकर डॉ. अंबेडकर के विचार-दर्शन को ठीक से समझने का प्रयास करें तो समझ में आ जाएगा कि भारतीय समाज में जो सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक गैर बराबरी है उसका नाश मूलत: और अंतत: स्त्री की मुक्ति से ही संभव है। और स्त्री की पराधीनता के लिए केवल पुरुष ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इसके पीछे कम से कम दो हजार साल से चली आ रही ब्राह्मणवादी मर्दवादी सत्ता जिम्मेदार है, जिसे शास्त्रों और वर्णव्यवस्था की आड़ में इस कदर निर्मित किया गया कि न केवल स्त्री बल्कि पूरा का पूरा भारतीय समाज ही जाति और वर्णव्यवस्था के अंधकूप में इस कदर धंसता चला गया कि आज इक्कीसवीं सदी में भी वह इससे मुक्त नहीं हो पा रहा है।
डॉ. अंबेडकर के लिए निम्न जाति के स्त्री-पुरुष की ही नहीं, समूचे भारतीय समाज की और उसमें भी विशेष रूप से सवर्ण जाति की स्त्रियों की मुक्ति और समानता का मुद्दा विशेष रूप से चिंता का केंद्र था। उनकी मूल स्थापना ही यह थी कि वर्णाश्रम आधरित जाति व्यवस्था के वजूद को बनाए रखने और उसे निरंतर मजबूत करने के लिए मुख्य औजार स्त्री को ही बनाया गया। क्योंकि भारतीय समाज में विवाह ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो जाति व्यवस्था को बनाए रखती है। इसके लिए ब्राह्मणवादी सत्ता ने जाति के बंधनों को कठोर बनाने के लिए स्त्री को जाति से बाहर विवाह के माध्यम से कहीं ओर न जाने देने के लिए कई अमानवीय और स्त्री विरोधी तरीके ईजाद किए। बाल विवाह, सती प्रथा और विधवा विवाह पर रोक ऐसी ही प्रथाएं हैं, जिनके माध्यम से स्त्री को जाति से बाहर नहीं जाने के कठोर प्रावधान लागू किए गए। इन तरीकों से स्त्री की यौनिकता को भी सीमित-नियंत्रित किए जाने का षड़यंत्र रचा गया। बाल विवाह से स्त्री आजन्म जाति बंधन में बंध जाती है। सती प्रथा से विधवा स्त्रियां समाप्त हो जाती हैं और विधवा विवाह पर रोक से महिलाएं जाति के दायरे में कैद हो जाती हैं।
डॉ. अंबेडकर ने 1917 में प्रस्तुत अपने शोधपत्र में इस बात को रेखांकित किया था कि विवाह के इन बंधनों ने समाज में ‘सरप्लस’ महिलाओं को नियंत्रित करने का ऐसा दुश्चक्र रचा कि वर्ण और जाति की व्यवस्था लगातार मजबूत होती रही, जिसमें स्त्री का हर प्रकार से अमानवीयता की हद तक शोषण होता रहा। इसके लिए डॉ. अंबेडकर मनुस्मृति का गहन विश्लेषण कर यह स्थापित करते हैं कि मनु द्वारा निर्मित जाति व्यवस्था में स्त्री को ही मुख्य आधार बनाया गया और इस क्रम में उसे हर प्रकार से नीचे गिराने और नियंत्रित करने की एक वैधानिक व्यवस्था बनाई गई। इस संदर्भ में यदि आप मनुस्मृति में वर्णित जातिव्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया को देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि पुरुष और खास तौर पर सवर्ण पुरुष कैसे विभिन्न जातियों की स्त्रियों के साथ विवाह से नई जातियों का निर्माण करता है और कैसे कोई स्त्री विवाह के माध्यम से नई जाति की जननी बन जाती है। अर्थात जाति व्यवस्था की पहली और अंतिम शिकार स्त्री ही होती है।
इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने जब संसद में हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया तो उन्होंने विस्तार से संसद को बताया कि विधिसम्मत विवाह के लिए जाति की अनिवार्यता समाप्त होनी चाहिए अर्थात कोई भी स्त्री या पुरुष किसी भी जाति में शादी करे तो उसे वैधानिक विवाह माना जाए। बहुविवाह प्रथा की समाप्ति हो और एक पुरुष एक ही स्त्री से विवाह करे और तलाक या विवाह विच्छेद की सबको अनुमति हो। इस बिल में बाबा साहेब ने हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अवयस्क एवं संरक्षण अधिनियम तथा हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम को शामिल किया था। इसके साथ ही पैतृक संपत्ति में पुत्री को पुत्र के समान अधिकार देने की व्यवस्था की गई थी। लेकिन तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक माहौल में इस बिल का जबरदस्त विरोध हुआ और बाबा साहेब को हिंदुओं का दुश्मन और न जाने क्या-क्या कहा गया। डॉ. अंबेडकर ने राजनेताओं और समाज की दुर्भावनापूर्ण प्रतिक्रियाओं के चलते बिल को अस्वीकार करने को लेकर इस्तीफा दे दिया। बाद में ये सब कानून धीरे-धीरे कर लागू किए गए, लेकिन इस प्रक्रिया में असंख्य महिलाओं को अपने अधिकारों की आहुति देकर प्राण त्यागने पड़े। सोचिए कि यदि 1951 में ही यह बिल स्वीकार कर लिया जाता तो भारतीय हिंदू महिलाओं का जीवन कितना बेहतर होता… लोगों ने बाबा साहेब को कितना गलत समझा इसका एक उदाहरण देखिए, जैसे उन्होंने कहा कि यह बिल हिंदू महिलाओं या पुरुषों को जाति से बाहर विवाह की अनुमति देता है, लेकिन कोई चाहे तो जाति में भी शादी कर सकता है। परंतु लोगों ने इसे जाति तोड़ने वाला कानून समझा। डॉ. अंबेडकर ने धर्मशास्त्रों से उदाहरण देकर बताया कि हिंदू समाज में अंतर्जातीय विवाह सदियों से होते आए हैं, लेकिन लोगों ने नहीं सुनी। संसद द्वारा बिल अस्वीकार किए जाने पर इस्तीफा देते हुए उन्होंने कहा था:
‘’इस देश में हिंदू कोड बिल अब तक का सबसे बड़ा सामाजिक सुधार का कानून था। इस देश के इतिहास में इससे पहले और आने वाले वर्षों में इससे बड़ा कोई कानून इतना महत्वपूर्ण न था और न होगा। वर्ग भेद और लिंग भेद हिंदू समाज की आत्मा है और इनको छूए बिना आर्थिक सुधार के कानून बनाने का मतलब है गोबर के ढेर पर महल बनाना। मैं इसके महत्व से परिचित हूं और इसीलिए इससे जुड़ाव है मेरा। अपने वैचारिक मतभेदों के बावजूद मैं इस बिल के हित में इसके लिए खड़ा हूं।‘ और बाबा साहेब अपने प्रति ईमानदारी बरतते हुए, खुद से बेईमानी न करते हुए बिल अस्वीकार करने पर इस्तीफा देकर अलग हो गए। असलियत में यह बिल उस पितृसत्ता के विरोध में था जो स्त्री के माध्यम से पूरे समाज को अपनी जकड़ से बाहर नहीं निकलने देना चाहती है, उसी ने इसका सबसे ज्यादा विरोध किया। दुर्भाग्य से उस समय की सवर्ण स्त्रियों तक ने हिंदू कोड बिल का विरोध किया। कहना ना होगा कि हिंदू कोड बिल के माध्यम से स्त्री मुक्ति के जो सवाल बाबा साहेब अंबेडकर ने खड़े किए थे, उनकी अनुगूंज बहुत दूर तक गई और 1955-56 तक आते-आते उसके कई प्रावधानों को लागू किया गया और 1976 तक तो लगभग पूरा बिल ही लागू कर दिया गया। स्त्रियों की आवाज मुखर करने में और आरंभिक महिला आंदोलनों के विकास में और उनकी विचारणा में डॉ. अंबेडकर के विचार और इस बिल की भावनाएं केंद्र में रहीं।
हिंदू कोड बिल के माध्यम से भारतीय स्त्रियों के साथ समूचे समाज की मुक्ति का स्वप्न साकार करने के इरादे से बहुत पहले यानी 1927 में बाबा साहेब अंबेडकर भारतीय स्त्रियों के लिए एक ऐसा कानून बना चुके थे, जिसका लाभ हर कामकाजी महिला उठा रही है और उन्हें ज्ञान तक नहीं कि यह अधिकार दिलाने वाले डॉ. अंबेडकर थे। बॉम्बे विधान परिषद में उन्होंने सवैतनिक मातृत्व अवकाश का अधिकार दिलाया था और इसे तमाम सरकारी संस्थानों में लागू करवाया था। इस बिल के बारे में उन्होंने कहा था, ‘यह राष्ट्र के हित में ही होगा कि माताओं को प्रसव से पूर्व और बाद में आराम मिलना चाहिए। यह बिल मातृत्व के इसी सिद्धांत पर लाया गया है। ऐसा करते हुए मैं स्वीकार करता हूं कि इसका भार सरकार को वहन करना चाहिए। मैं यह तथ्य स्वीकार करने के लिए तैयार हूं कि जन कल्याण का संरक्षण सरकार का प्राथमिक सरोकार है। और प्रत्येक देश में आप पाएंगे कि मातृत्व लाभ का दायित्व सरकारों द्वारा ही वहन किया जाता है।‘
डॉ. अंबेडकर ने महिलाओं की गरिमा और समानता को संविधान में बहुत महत्व दिया। संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 23, 39, 42, 51 और 243 के अनेक प्रावधानों में महिला सुरक्षा, समानता, बराबरी के अधिकार आदि की व्यवस्था करते हुए यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि स्त्रियां इस देश के सर्वांगीण विकास में पुरुषों की हमकदम बनकर देश को आगे ले जाएं। हिंदू कोड बिल पेश करते हुए उन्होंने कहा था, जो अधिकार मैं संविधान के माध्यम से बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं को नहीं दे पाया, वे अधिकार इस बिल के माध्यम से हासिल होंगे। वे ऐसा इसलिए भी कह रहे थे कि उनके सत्याग्रह और आंदोलनों में दलित ही नहीं सवर्ण स्त्रियां भी समान रूप से भाग लेती थीं। 1927 में मंदिर प्रवेश के लिए चले महाड़ सत्याग्रह में उनके साथ शांता बाई शिंदे जैसी सवर्ण महिलाएं भी उनका साथ दे रही थीं। इसी सत्याग्रह में मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन किया गया था। ऐसी अनेक महिलएं बाबा साहेब के साथ अछूत-दलित वर्ग की महिलाओं के उत्थान के लिए काम कर रही थीं।