विविधता ,संघीय शासन और अनुच्छेद 370
– सम्राट बौद्ध
आम तौर पर प्रजातान्त्रिक देशों में शासन का स्वरूप दो तरह का होता है, पहला- एकात्मक और दूसरा -संघात्मक।वे देश जिनमे धार्मिक, भाषाई व नृजातीय विविधता नही पाई जाती है, उनमें एकात्मक शासन व्यवस्था होती है , क्योंकि इन देशों में लोगों के हित समान होते हैं । ऐसे में इन देशों में नागरिकों को किसी विशेष प्रतिनिधित्व, प्रावधान या संरक्षण की आवश्यकता नही होती. उदाहरण के तौर पर अधिकांश यूरोपीय देश.
जिन देशों में धार्मिक, भाषाई और नृजातीय तौर पर विविधिता पाई जाती है, उन देशों में संघात्मक शासन व्यवस्था पाई जाती है ।यहां तमाम समूहों को विशेष प्रतिनिधित्व, संरक्षण दिया जाता है ,चूँकि इन समूहों के लोगो के हित , सोच और आवश्यकताएं समान नही होती जैसे भारत, अमेरिका।
किसी देश को संघ बनाने का मूल उद्देश्य ही यही होता है कि उस देश मे मौजूद विविधता को मान्यता प्रदान की जा सके, ताकि उनको एक साथ ले कर एक देश के रूप में संजोया जा सके। यह काम उस देश का लिखित संविधान करता है। संविधान तमाम विविधिताओं को स्वीकारता है, उन्हें मान्यता प्रदान करता है, उनके हितों को संरक्षित करने की लिखित गारंटी देता है, तब राष्ट्र निर्माण के क्रम में तमाम विविधिताओं बाले समूह एक साथ मिलते हैं।
इस प्रकार दुनिया भर के तमाम सफल संघीय शासन व्यवस्था बाले देशों के संविधान में अलग -अलग समूहों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। जैसे अमेरिका में हर राज्य का अलग संविधान, ध्वज, और न्यायपालिका है और हर राज्य के मौलिक अधिकारों में भी विभिन्नता पाई जाती है।
इसी तरह भारत के संविधान में अनुसूचित जाति व जनजातियों , भाषाई व धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं जो अन्य नागरिकों को प्राप्त अधिकारों से अलग हैं।
भारत मे मात्र धार्मिक, भाषाई व जातीय विविधता को ही नही बल्कि क्षेत्रीय विविधता को भी मान्यता प्रदान की गई है। इसके लिए भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 व 371 के तमाम उपधाराओं में क्रमश जम्मू कश्मीर, उत्तरपूर्वी राज्य, विदर्भ समेत 12 क्षेत्रीय तौर पर विविधता रखने वाले क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान रहे है। ये प्रावधान अमेरिका में मौजूद अलग प्रावधानों के तरह भी ज्यादा स्वतंत्रता प्रदान नही करते पर अन्य राज्यों की तुलना में पर्याप्त विशेष अधिकार इन क्षेत्रों को प्रदान करते हैं। इसी का उदाहरण है भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370.
भारत मे कुछ समूह है, जो भारत की विविधिताओं का ध्यान में न रखते हुए यूरोपीय देशों की तरह भारत मे एकात्मकता की बात करते हैं । जिसके तहत वे समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 का उन्मूलन, आरक्षण की समाप्ति जैसी मांगें उठाते हैं। इस तरह की मांग उठाने बाले समूहों में एक समानता यह है कि इनका चरित्र अनिवार्यत मनुवादी और सामंतवादी होता हैं।
ये समूह एक तरह से अनिवार्य या बाध्यकारी एकता स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, जिन संघों ने बाध्यकारी एकता स्थापित करने का प्रयास किया है, उनमें हमेशा बड़ा अलगाव या विखराव हुआ है। उदाहरण के तौर पर सोवियत संघ जहां धार्मिक और नृजातीय विविधता बहुत ज्यादा थी जो 1991 में बिखर गया ।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर की विशेष सांस्कृतिक विविधिता , क्षेत्रीय अलगाव व धार्मिक भिन्नता को ध्यान में रखते हुए शामिल किया गया। कुछ दिन पहले जब इस अनुच्छेद को आंशिक तौर पर हटाया गया । तब देश मे एक उत्सव का माहौल उस मीडिया की विवेचना के आधार पर बना जिसे अनुच्छेद और धारा में अंतर नही पता। टीवी के रक्तपिपासु एंकर जोर जोर से ‘धारा’ 370′ के हटने का जश्न मना रहे हैं। ये वही लोग थे जो विमुद्रिकरण के समय बिना एडम स्मिथ को जाने अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ बन गए थे।
असल मे अनुच्छेद 370 वैसा नही है जैसा आपको मीडिया बता रहा था। कश्मीर के भारत के विलय के समय जरूर केवल 3 विषयों पर भारतीय संघीय सरकार को कानून बनाने का अधिकार था, परंतु 1952 के दिल्ली समझौते और 1963 के राष्ट्रपति के आदेश के बाद से ( इसके बाद 1983 तक एक श्रंखला सी बनी कश्मीर पर राष्ट्रपति के आदेश की) अनुच्छेद 370 मात्र एक खोखला ढांचा रह गया था, संघ सूची व समवर्ती सूची के विषयों पर संघीय सरकार कानून बना सकती थी कुछ विषयों को छोड़ कर (अवशिष्ट शक्तियां) ।
यह स्थिति दोनों पक्षों के लिए अनुकूल थी, जहां जम्मू कश्मीर के लोग भावनात्मक रूप से अनुच्छेद 370 से सुरक्षित महसूस कर रहे थे और संघीय सरकार उनके सन्दर्भ में कानून बना पा रही थी। अंतर मात्र इतना होता था कि इसके लिए राष्ट्रपति को अलग से आदेश जारी करना होता था।
पर हाल में सरकार का निर्णय उस संघीय अवधारणा के खिलाफ है जिसके कारण कोई देश संघीय ढांचे अपनाता है। मैं यह नही कह रहा कि अनुच्छेद 370 कभी नही हटना चाहिए था । इसे हटना चाहिए था पर वहां के लोगों की सहमति के साथ या समय के साथ जब सांस्कृतिक अलगाव मुद्दा नही रहता और विकास सबसे ऊपर हो जाता, तब यह अनुच्छेद स्वयं ही गैर जरूरी हो जाता।
दूसरी स्थिति यह थी कि शेष भारत के लोग कश्मीरियों से दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह व्यवहार न कर उन्हें भी वैसे ही देखते जैसे हम राजस्थान या मध्यप्रदेश के लोगों को देखते हैं या उनके साथ व्यवहार करते हैं । पूरे देश मे कश्मीरियों के साथ जिस तरह का व्यवहार हम करते हैं, यह व्यवहार उन्हें हमसे दूर ले जा रहा है ।
सरकार का वर्तमान निर्णय बाध्यकारी एकता स्थापित करने का प्रयास है , जो एकता के स्थान पर मात्र अलगाव को बढ़ावा देगा। ऊपर से कश्मीरी लड़कियों को प्रति बड़े पदों पर बैठे लोगों की बातें हमे कुत्सित यौन ग्रंथित मानसिकता का सिद्ध करने पर तुली है। यहां तक कि जो लोग ठाकुर द्वारा गांव में उनकी कब्जाई जमीन छुडाने की औकात नही रखते ,वे भी कश्मीर में प्लाट लेने की खुशी में उछल रहे हैं। कश्मीर तो हमेशा से हमारा था ही, हमे तो कश्मीरियत और कश्मीरियों को अपना बनाना है, तभी हम एक बेहतर भारत और कश्मीर का निर्माण कर पाएंगे। जो कम से कम ऐसे कदमों से मुमकिन नही है।
खैर, यह सवाल राष्ट्र की अवधारणा के निर्माण के साथ चला है कि राष्ट्र प्राथमिक है या मानवाधिकार ? मेरा चुनाव मानवाधिकार है, आप अपना तर्को के आधार पर चुनाव करें.
( लेखक राजनीति विज्ञान एवं अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध विषय के विद्यार्थी हैं और उनकी किताब उदम्बरा काफी चर्चित हुई है )