आर एस एस के प्रति आगाह करती एक जरूरी किताब !
( तारा राम गौतम ) 20 अक्टूबर 2019 को जयपुर मैं पी एम बौद्ध द्वारा आयोज्य एक कार्यक्रम में शरीक होने का अवसर मिला। कार्यक्रम में कई लोगों से मिलकर अच्छा लगा। वहां पर पी एम बौद्ध की व्यस्तता के कारण उनसे क्षण भर की मुलाकात ही हुई, कोई विशेष बात नहीं हो पाई परंतु डॉ एम एल परिहार से काफी समय तक गुफ्तगू करना सुखद अवसर था। भंवर मेघवंशी की पुस्तक ‘मैं एक कारसेवक था’ का जिक्र चलने पर डॉ परिहार ने मुझे वह पुस्तक उपलब्ध करवाने का आश्वासन दिया, अस्तु मैं रात्रि को उनके घर गया। उनके परिवार से मिलना भी सुखद रहा। मैं उनके आतिथ्य का अनुग्रही हूँ। उन्होंने इस पुस्तक के साथ कुछ अन्य पुस्तकें भी भेंट की, जो मेरे पुस्तकालय की निधि में वृद्धि करेगी। सुबह जोधपुर पहुंचने पर मैंने सबसे पहले भंवर मेघवंशी की पुस्तक को ही पढ़ने का निर्णय लिया और उसको पढ़ने के बाद डॉ परिहार से बात की। उन्होंने इस पर कुछ लिखने का निवेदन किया, अतः आगे जो कुछ पुस्तक के बारे में लिखा गया है वह तत्क्षण की गई टिप्पणी है। यह न तो पुस्तक का सार है और न ही पुस्तक के सभी पक्षों का निचोड़ है, यह सिर्फ तत्क्षण दिमाग में आये कुछ विचारों का शब्दांकन है। पुस्तक का कवर, टाइपिंग, प्रस्तुतिकरण, भावांकन आदि उत्तम है। जो कुछ कहा गया है वह बिना लाग लपेट के भय रहित बेबाक रूप से कहा गया है। शब्दाडम्बर से बचते हुए पाठक को सहयात्री बनाने में लेखनी सफल कही जा सकती है। पुस्तक की भूमिका गागर में सागर भरने वाली कहावत को चरितार्थ करती है। हालांकि भूमिका में हिमांशु पंड्या ने इसे आत्मकथा कहा है, लेकिन पुस्तक का शीर्षक ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह घटना विशेष पर केंद्रित एक रचना है। आत्मकथा, जिसे जीवनी का पर्याय समझा जाता है, वह नहीं है परंतु इसे जीवन-गाथा की अविरल कहानी का कुछ अंश कहा जा सकता है। इस आत्मकथन में ललक, वेदना, प्रतिशोध, प्रतिकार और प्रतिबोध को व्यक्तियों और घटनाओं के माध्यम से समंजित और सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है, जो पाठक को बांधे रखने में सफल कही जा सकती है। भाषा और भाव की दृष्टि से रचना स्तरीय है। भूमिका लेखक हिमांशु पण्ड्या ने दलित चेतना को प्रतिशोध के कटघरे में खड़ा किया है, परंतु भंवर मेघवंशी को उस चेतना के दूसरे आयाम अर्थात जातिगत प्रतिशोध की अंधी गली से बाहर का भी माना है। ‘बदलाव नहीं बदला लेने की इच्छा’ के क्रम वार में लेखक का कथन कि “मैं किसी भी तरीके से आरएसएस के लोगों से प्रतिशोध लेना चाहता था। इस के लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार था।” व्यक्तिगत बदले की भावना शुरू शुरू में संघ के कुछ व्यक्तियों तक सीमित रही है लेकिन जब उच्च स्तर से भी लेखक को कोई सम्बल या समर्थन नहीं मिलता है तो वह संघ विरोधी बन जाता है। बदले की इसी लौह में लेखक ने गंभीरता से धर्मांतरण के बारे में सोचना प्रारंभ किया और उसकी अपनी धारणा में ईसाई होना बेहतर विकल्प था। यह स्पष्ट है कि धर्मांतरण के विचार के मूल में उनके द्वारा आरएसएस को दिये गए भोजन और उस भोजन को सड़क किनारे फैंकने से उपजी वैयक्तिक पीड़ा ही रही है। इस पीड़ा और प्रतिशोध के फलीभूत उसने आरएसएस का प्रतिकार करना शुरू कर दिया। व्यक्तिगत प्रतिकार को सामाजिक भेदभाव के प्रतिरोध की आवाज में तब्दील होने में देर नहीं लगी और लेखक ने आत्महत्या से बचके निकलने के बाद उस रास्ते को चुन लिया, जिस पर वह अभी भी कायम है। यह सब मानते हुए ही इस रचना को वेदना की उत्पत्ति माना गया है। यह न तो कोई उपन्यास है और न ही कोई कहानी। इसमें कुछ विशेष विशेष घटनाओं का जिक्र है और उनका विश्लेषण है। तिथि रहित घटनाएं सारभूत है, जिस में लेखक का नजरिया प्रतिशोध से प्रतिरोध पर आ टिकता है और अंततः संविधान अनुरूप सत्ता और समाज की स्थापना के बड़े उद्देश्य में समाहित होता हुआ नजर आता है। इस पूरी कृति का केंद्रीय बिंदु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसका चरित्र है, जिसे लेखक ने भोगा है। उस भोगे हुए अनुभव की उपज से निकले निष्णात बाण को आरएसएस पर ही साधा है। लेखक का आत्मकथन ‘सौगंध राम की खाते है’ से प्रारंभ होता है, जो इस पुस्तक के वर्ण्य-विषय को संजीदा पृष्ठभूमि प्रदान करता है। आरएसएस से लेखक का जुड़ाव उस समय हुआ जब भंवर मेघवंशी की उम्र 13 वर्ष थी। छठी कक्षा में पढ़ने वाले बाल-मन के लिए शाखा देशभक्ति का स्रोत था। इसी धर्मानुरंजित देशभक्ति से ओतप्रोत किशोर अयोध्या में कार सेवा के लिए 17 वर्ष की उम्र में घर से भाग जाता है। उस समय लेखक ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी था। वह अयोध्या नहीं पहुंच पाता है और अन्य स्वयं सेवकों के साथ आगरा से ही वापस खदेड़ दिया जाता है। आरएसएस की शाखा में धर्म और देशभक्ति का जो पाठ पढ़ाया जाता है और उससे लेखक को जो अनुभव हुआ उसे लेखक यथा-प्रसंग रखकर आरएसएस की सोच का खुलासा करने में सफल रहा है। उसका निष्कर्ष है कि पग-पग पर आरएसएस का चरित्र दोगलापन लिए है। जिसे लेखक कई घटनाओं और वाकयों के माध्यम से पाठकों के सामने रखने में सफल रहा है। घटना और कथ्य-शैली पाठक को बांधे रखती है। कुल मिलाकर पुस्तक का पूर्वांग परिदृश्य ‘आकर्षण और विकर्षण’ के बीच का है। आरएसएस से मोहभंग हो जाने के बाद लेखक में प्रतिशोध की भावना जागृत हो जाती है। प्रतिशोध की ज्वाला के बीज आरएसएस की शाखा में बोये जाते है, ऐसा लेखक निरंतर वर्णित करता रहा है। लेखक के चित्त में प्रतिशोध की उर्वरा आरएसएस ने ही पैदा की, हालांकि आरएसएस द्वारा उद्वेलित की जाने वाली विद्वेष की भावना मुसलमान, ईसाई या कि मलेच्छ के विरोध में कही गयी है, परंतु विद्वेष और प्रतिशोध की प्रवृति को पैदा किये बगैर वह पनपती नहीं है। लेखक आरएसएस से जुड़े होने से उस में वह भावना पनप चुकी थी। अतः जब आरएसएस से मोह भंग हुआ तो वह प्रतिशोध आरएसएस के विरुद्ध ही पनपने लगा। विकर्षण के मोड़ पर व्यक्तिगत प्रतिशोध की ज्वाला में जलता हुआ लेखक विभिन्न धर्मों में आश्रय ढूंढता है, जो कदाचित उसके चित्त को प्रतिशोध की ज्वाला से शांति दिला सके और उसके प्रति किये गए संघ के कृत्य का वह बदला ले सके। मुस्लिम धर्म के संपर्क सूत्रों को उजागर करते हुए लेखक की निराशा प्रतिक्रिया में तब्दील होती हुई नजर आती है। वह कुछ संगठन बनाने का उपक्रम करता है। लेखक के मन में अतिरंजित होती ईर्ष्या से ज्यादा द्वेष और डाह से ज्यादा चिढ़ाने की मनोवृत्ति और उस से प्रेरित कृत्य उसे मुसलमान धर्म आत्मसात करने में बाधक बन जाते है। प्रतिशोध से प्रेरित मन को मस्जिद में वह खाद पानी नहीं मिलता है, जिसकी वह कल्पना संजोए हुए था। बदले की भावना में कुंठित मन मुसलमान तो नहीं बनता है, अलबत्ता मुसलमान दोस्त बना कर धर्म परिवर्तन की भावना को तीव्र कर देता है। वह ईसाईयत की ओर कदम बढ़ा देता है। लेखक इस पूरे घटनाक्रम में भावना के वशीभूत है, हालांकि जगह-जगह पर लेखक यह दिखाने का सफल प्रयास करता रहा है कि उसकी संघ के प्रति वितृष्णा और प्रतिशोध अनायास नहीं है और उसका मूल प्रस्थान वैचारिक है। लेखक तर्कशील होते हुए भी भावना के वशीभूत ही रहता है। यह वही भावना है जो उसे ईसाई बनने को प्रेरित करती है। द्वेष, प्रतिशोध और उद्विग्नता वशीभूत भावना व्यक्ति को बागी बनाती है, जिस में आदर्श और साध्य नहीं बदलते है। डॉ आंबेडकर के साहित्य से साक्षात्कार से पहले वह इसी का प्रतिनिधित्व करता है। लेखक आरएसएस में रहते हुए बाबा साहेब अंबेडकर के बारे में पांचजन्य, पाथेयकण, राष्ट्रधर्म, जाह्नवी आदि में यदाकदा प्रकाशित कुछ छुटपुट जानकारी से लाभान्वित होता रहा है, जो आरएसएस के नजरिये से ओतप्रोत रही है। जब आरएसएस से संबंध विच्छेद हुए तो लेखक ने बाबा साहेब की कुछ रचनाओं को पढ़ने का जिक्र किया, जिस से वह प्रभावित हुआ। वह रजनीश से भी प्रभावित हुआ। कुल मिलाकर उस पर अन्य परिस्थितियों और प्रभावों की छाप पड़नी शुरू हुई, जो उस पर पहले से पड़ी आरएसएस की छाप को धूमिल करने में कामयाब रही। अब वह संघी नहीं रह गया था बल्कि संघ का बागी बन गया। सामाजिक विद्रूपता उसके सामने थी। उसको अनुभूत करने के अवसर यदाकदा उसके जीवन में आते रहे होंगे, परंतु गहराई से उसने कभी अनुभूत किया हो, इसका कहीं पर भी जिक्र नहीं है। गहराई से चिंतन मनन का अवसर भी उसी पीड़ा ने दिया, जो उसकी गरिमा को खंडित करने से पैदा हुई थी। उसके जीवन में उपजी व्यक्तिगत पीड़ा और उसकी अनुभूति भोजन की घटना के बाद सामाजिक घटनाओं में तब्दील होती गयी और उसने लेखक का नजरिया ही बदल दिया। शिक्षक रहते हुए उसको अपमान और अन्याय का अहसास हुआ और वह अपने कुछ साथियों की मदद से पत्रकारिता के क्षेत्र में उतर जाता है। डायमंड इंडिया हो या अन्य कृतियां लेखक में एक जज्बा पैदा करती है। पुस्तक के पूर्व भाग में घटनाओं का वर्णन है परंतु तिथियों का अभाव है लेकिन बाद के हिस्से में घटनाओं के विश्लेषण में कहीं कहीं पर तिथियां भी संदर्भित की गई है। घटनाएं सिलसिलेवार प्रस्तुत नहीं है, बल्कि लेखक ने अपने नजरिये से उनकी गंभीरता या लघुता के प्रस्तुतिकरण का एक क्रम निर्धारित किया है उसके अनुरुप वे विश्लेषित है। प्रस्तुतिकरण और विश्लेषण पाठक को न केवल लेखक के नजरिये से परिचित कराता है बल्कि आत्मानुभूति को समझने में सहायक है। प्रस्तुतिकरण और विश्लेषण घटनाओं को जीवंत बनाता हुआ प्रतीत होता है। सूचना के अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से, मजदूर किसान शक्ति संगठन, पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज आदि संगठनों और उनकी शख्सियतों से लेखक का न केवल परिचय होता है, बल्कि वह उनसे जुड़ कर सामाजिक सरोकार में अन्याय और असमानता के विरुद्ध किये जा रहे जन-आंदोलनों से जुड़ जाता है। पुस्तक में इस संबंध में किया गया वर्णन लेखक की गत्यात्मक भूमिका को रेखांकित करता है, जिस में में न तो आडंबर है और न ही अतिरंजना। लेखक ने अपनी भूमिका को विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में यथा रूप रखकर पाठक को जोड़े रखा है। लेखक का कुलदीप नैयर, हर्ष मंदर, अरुंधति रॉय, भरत डोगरा, प्रभाष जोशी आदि स्वनाम धन्य शख्सियतों से संपर्क और सहयोग उसकी ऊर्जा को न केवल बढ़ाने वाले रहे बल्कि विकट परिस्थितियों में मार्गदर्शक भी रहे। लेखक का स्वयंसेवक साथी पुरुषोत्तम श्रोत्रिय हो या शिक्षक-वृति के दौरान मित्र बने कान सिंह राठौर, गिरधारीलाल गुर्जर, बलवीरसिंह गौड़, पारस लौहार, भैरूलाल शर्मा, पप्पू सिंह चूंडावत, हरीसिंह भाटी, मेवाराम गुर्जर, मंजू शर्मा आदि ने अन्याय, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार आदि में लेखक का भरपूर साथ दिया, जिसका शुकराना करके लेखक ने कृति की विश्वसनीयता और ईमानदारी का परिचय दिया है। इस कृति पर आत्ममुग्धता का आरोपण तो नहीं किया जा सकता है, परंतु फिर भी पुस्तक आत्मकेंद्रित है। वह आरएसएस और लेखक के बीच की उहापोह ही नहीं है, बल्कि सामाजिक सरोकारों में दो नजरिये पेश करती है।अगर कम शब्दों में कहा जाए तो इन सब का निहितार्थ यह है कि समाज को आरएसएस की दोगली नीति से बचना चाहिए। आरएसएस के संगठनों में समभाव और विद्वेष, सौहादर्य और दुश्मनी, एकता और विखंडन, आदर्श और प्रतिपत्ति में इतना महीन भेद है कि सामान्य जन उसको समझने और परखने में चूक कर जाता है। जिसका आगाह यह कृति करती है और वह संदेश देने में सफल रही है। पुस्तक पठनीय है। संग्रणीय और सराहनीय है। हर एक सामाजिक कार्यकर्ता को इस रचना को पढ़ना चाहिए, यह उन्हें नई दृष्टि देने में कामयाब होगी। अभी इतना ही।फिलहाल लेखक भंवर मेघवंशी को इसके लिए बहुत बहुत बधाई और अभिनंदन। |