आम चुनाव 2019: भारतीय प्रजातंत्र का एक नया अध्याय !
(नेहा दाबाड़े)
दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र में हाल में संपन्न आम चुनाव में भाजपा को एक बार फिर देश पर अगले पांच साल तक राज करने का जनादेश प्राप्त हुआ है. लोकसभा की 543 में से 303 सीटें जीत कर भाजपा ने जबरदस्त बहुमत हासिल किया है. भाजपा की इस विजय के कारणों और कारकों के विश्लेषण और भारतीय प्रजातंत्र और देश की राजनीति के लिए इस जीत के निहितार्थतों को समझने के लिए सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेकुलरिज्म (सीएसएसएस) ने मुंबई में 28 मई 2019 को एक गोलमेज़ बैठक का आयोजन किया. इस आयोजन में 20 प्रतिभागियों ने हिस्सेदारी की, जिनमें जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता, अध्येता और शांति के लिए काम करने वाले प्रबुद्ध नागरिक शामिल थे.
चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते हुए, जिन कारकों पर चर्चा की गई उनमें शामिल थे प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता, विभिन्न तरीकों से उनकी अपराजेय नेता की छवि का निर्माण, विपक्ष की कमियां और गलतियाँ, राष्ट्रवाद का विमर्श और आरएसएस – जिसने ज़मीनी स्तर पर ऐसे आख्यान निर्मित किए जो भाजपा की विजय में सहायक बने – की भूमिका. इस विजय के विभिन्न संस्थाओं के लिए निहितार्थों पर भी चर्चा हुई. सम्मलेन में उन क़दमों पर भी विचार किया गया, जिन्हें नागरिक समाज संगठनों को विविधता, स्वतंत्रता और प्रजातंत्र को बढ़ावा देने के लिए उठाना होगा.
चर्चा से यह उभर कर सामने आया कि भाजपा की भारी जीत के पीछे सबसे बड़ा कारक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं. ऐसा लगता है कि लोगों ने भाजपा को नहीं बल्कि मोदी को अपना मत दिया क्योंकि यह धारणा आम हो गयी थी कि उनका कोई विकल्प ही नहीं है. यह धारणा कि मोदी की जगह कोई नहीं ले सकता, अत्यंत योजनाबद्ध तरीके और कुशलता से निर्मित की गई. उन्हें एक ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया गया जो दिलेर है, निर्णय लेने में घबराता नहीं है, योग्यता को तरजीह देता है, भ्रष्टाचार से कोसों दूर है और साधारण परिवार में जन्मा एक ऐसा व्यक्ति है, जो आम भारतीयों की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है. मोदी ने अपने बारे में इस धारणा को मजबूती देने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों – मध्यम वर्ग, विद्यार्थियों, युवाओं और उद्यमियों – से संवाद स्थापित किया और लम्बे-चौड़े वायदे किये. यह सन्देश देने का प्रयास किया गया कि विश्व के शीर्ष नेताओं से अपने संपर्कों-संबंधों के चलते, मोदी ने भारत को विश्व के नक़्शे पर एक महत्वपूर्ण स्थान दिलवाया है. मोदी ने गरीबों से वायदा किया कि उनके बैंक खातों में 6,000 रुपये जमा किये जाएंगें और उन्हें बिना किसी खर्च के चिकित्सा सुविधा उपलब्ध होगी. मोदी ने मुस्लिम महिलाओं को आकर्षित करने के लिए तीन तलाक की व्यवस्था को समाप्त करने का पुरजोर प्रयास किया. वे मतदाताओं को भावनाओं में बहाने में सफल रहे. यहाँ तक कि उन्होंने नोटबंदी, जिसके कारण लाखों लोगों को अपनी रोजीरोटी से हाथ धोना पड़ा, का भी महिमामंडन कर दिया और उसके कारण आमजनों को होने वाली कठिनाईयों को देश की खातिर बलिदान और त्याग बता दिया. नतीजा यह हुआ कि नोटबंदी का भी भाजपा को मिलने वाले वोटों पर कोई असर नहीं हुआ.
मोदी ने देश की जनता के स्वर से अपना स्वर मिला लिया. उन्होंने जीवन में आगे बढ़ने के लोगों के सपने का भरपूर दोहन किया. उन्होंने मीडिया का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया. उनके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं थी और मीडिया ने उनकी छवि गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
भाजपा की जीत का दूसरा महत्वपूर्ण कारक था आरएसएस की ज़मीनी स्तर पर घुसपैठ और उत्तरी व पश्चिमी राज्यों में उसका मज़बूत नेटवर्क. संघ ने हिन्दू नायकों और उत्सवों का उपयोग लोगों को धार्मिक आधार पर लामबंद करने के लिए किया. संघ ने त्योहारों को राजनैतिक लामबंदी करने के अवसर के रूप में लिया और सन 2018 में पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा भड़काई. हिन्दू श्रेष्ठतावादी संगठनों ने त्योहारों के मौके पर धार्मिक जुलूसों का आयोजन किया, जिनमें अन्य समुदायों को अपमानित किया गया और आक्रामकता का खुल कर प्रदर्शन हुआ. इसके कारण सांप्रदायिक हिंसा हुई और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी.
कुछ समय पहले, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत से ऐसा लगने लगा था कि भाजपा की लोकप्रियता में गिरावट आ रही है. परन्तु पुलवामा हमले और उसके बाद बालाकोट में भारतीय सेना की कार्यवाही से भाजपा को राष्ट्रवाद के अपने आख्यान को मजबूती देने का अवसर मिल गया. उसने देश के नागरिकों के एक तबके में खून की प्यास जगाने में सफलता प्राप्त की. भाजपा ने लोगों के मन में यह धारणा उत्पन्न करने का प्रयास किया कि देश केवल मोदी के हाथों में सुरक्षित है क्योंकि वे राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में आक्रामक और निर्णायक कदम उठाने से डरते नहीं हैं. उनका नारा “घर में घुस के मारेंगे” अहिंसा और संयम के सिद्धांतों के एकदम खिलाफ भले ही रहा हो परन्तु उसने आम भारतीय में गर्व और अपराजेयता का भाव जगाया. भारतीय मीडिया ने बिना सोच-विचार के इस राष्ट्रवादी आख्यान को लपक लिया. राष्ट्रवाद के विमर्श ने देश का ध्यान आर्थिक बेहतरी, लोगों को जीवनयापन के साधन और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने और आर्थिक असमानता कम करने जैसे मूल मुद्दों से भटका दिया. देश को यह बताया गया कि पाकिस्तान हमारा बाहरी शत्रु है. और कुछ भाजपा नेताओं ने अपने वक्तव्यों के ज़रिये यह सन्देश देने की कोशिश की कि मुसलमान, देश के आतंरिक शत्रु हैं और वे बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के लिए खतरा हैं.
आम तौर पर सभी प्रतिभागियों का मानना था कि कमज़ोर विपक्ष ने भाजपा की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. राहुल गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को जनता ने मोदी के राजनैतिक विकल्प के रूप में कभी स्वीकार ही नहीं किया. कांग्रेस ‘न्याय’ योजना पर केन्द्रित अपने सकारात्मक अभियान को इसके संभावित लाभार्थियों तक ले ही नहीं जा सकी. यह अभियान बहुत देर से शुरू हुआ. कांग्रेस पर वंशवाद का दाग भी था. इस कारण भी पार्टी लोगों का समर्थन और विश्वास हासिल नहीं कर पाई. विपक्ष के पास मोदी की टक्कर का करिश्माई नेता नहीं था. यूपीए गठबंधन में आतंरिक कलह के कारण लोगों को लगा कि यह गठबंधन एक स्थिर और निर्णायक सरकार नहीं दे पायेगा. दूसरी ओर, भाजपा ने एक मज़बूत गठबंधन तैयार किया. कई राज्यों में वह अपने गठबंधन साथियों के आगे झुकी भी. भाजपा और उसके सहयोगियों ने जातिगत समीकरणों को ध्वस्त कर दिया. एनडीए को उन जातियों का समर्थन हासिल करने में भी सफलता मिल गयी जो कभी उसके साथ नहीं थीं. उसने आंबेडकर और गाँधी जैसे नायकों का खुल कर इस्तेमाल किया.
इस विजय में धन और मीडिया ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. हालिया आम चुनाव, देश का सबसे महंगा चुनाव था. कहा जाता है कि इस चुनाव में 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए, जबकि इसके पिछले चुनाव में यह आंकड़ा 40,000 करोड़ रुपये था. भाजपा को कॉर्पोरेट घरानों का भरपूर समर्थन प्राप्त था. पार्टी के पास अपार धन था. इसका इस्तेमाल उसने विभिन्न मीडिया के ज़रिये समाज के विभिन्न तबकों तक अपना सन्देश पहुँचाने में किया. कुशल विशेषज्ञों के नेतृत्व में व्हाट्सएप सहित अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों का इस्तेमाल, पार्टी के लिए फायदेमंद आख्यानों को निर्मित करने और मोदी कि छवि को सँवारने के लिए किया गया.
इस जनादेश के निहितार्थ
बैठक में इस जनादेश के देश के प्रजातान्त्रिक ढांचे और चरित्र के लिए निहितार्थों पर भी चर्चा की गयी. इस जनादेश का एक स्पष्ट प्रभाव तो यह होगा कि देश बहुसंख्यकवाद की ओर बढेगा. हिन्दुत्वादी एजेंडे के चलते, पहले से ही सार्वजनिक विमर्श में दक्षिणपंथी झुकाव परिलक्षित हो रहा है. संवैधानिक और अन्य संस्थाओं जैसे न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सीबीआई और विश्वविद्यालयों की कार्यप्रणाली में परिवर्तन आया है. यह परिवर्तन अब और तेजी से आएगा. कानूनों और सरकारी नीतियों व कार्यक्रमों का उपयोग, सत्ताधारी दल द्वारा अपने राजनैतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए किया जायेगा. जैसा कि भाजपा प्रमुख अमित शाह ने वायदा किया है, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर – जिसनें असम में लाखों लोगों को कहीं का नहीं छोड़ा है – का निर्माण देश के अन्य क्षेत्रों में भी करने की कवायद शुरू की जा सकती है. गैर-हिन्दुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर, ऊंची जातियों के हिन्दुओं का वर्चस्व स्थापित करने के एजेंडे को और जोर-शोर से लागू किया जायेगा.
चुनाव के नतीजों की घोषणा की बाद, दलितों और मुसलमानों पर हमले की अनेक घटनाएं सामने आईं हैं. प्रधानमंत्री जहाँ अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने की बात कर रहे हैं वहीं ये हमले जारी हैं. चर्चा में भाग लेने वालों में से अधिकांश का मत था कि आने वाले दिनों में कमज़ोर और वंचित समूहों और समुदायों का दमन बढेगा. सांप्रदायिक दंगे – जिनके कारण हुए ध्रुवीकरण का लाभ भाजपा को चुनाव में मिला – अब छोटे पैमाने पर होंगे. बड़े सांप्रदायिक दंगे और उनके कारण होने वाली सामाजिक उथल-पुथल, अर्थव्यस्था के लिए हानिकारक होते हैं और कॉर्पोरेट घराने, जो भाजपा के काफी नज़दीक हैं, ऐसा नहीं होने देना चाहेंगे. वैसे भी, समाज का ध्रुवीकरण तो हो ही चुका है.
नीतियों और कानूनों के साथ-साथ, हिंसा के जरिये देश को एकसार बनाने के प्रोजेक्ट पर काम जारी रहेगा. भाजपा के पितृ संगठन और उसके विचारधारात्मक पथप्रदर्शक आरएसएस का सरकार में दखल बढ़ जायेगा. इस जनादेश का सामाजिक-राजनैतिक के अतिरिक्त आर्थिक प्रभाव भी पड़ेगा. निजीकरण बढेगा और क्रोनी कैपिटलिज़्म का बोलबाला भी.
नागरिक समाज संगठन क्या करें?
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संस्कृति का प्रजातंत्रीकरण
यह निश्चित है कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी को मिला यह जनादेश किसी ना किसी रूप में, उस राजनैतिक एजेंडे के क्रियान्वयन का वाहक बनेगा, जो सामाजिक पदक्रम को मज़बूत करता है. नागरिक समाज को सामाजिक ऊंचनीच का मुकाबला करने के लिए, संस्कृति के प्रजातांत्रिकरण को बढ़ावा देना होगा. आज की सामंती संस्कृति, समालोचना और प्रश्न उठाने को प्रोत्साहित नहीं करती. जिस संस्कृति को देश पर लादने की कोशिश हो रही है, वह मूलतः ऊंची जातियों और उच्च वर्ग की व एक धर्म विशेष की पितृसत्तामक संस्कृति है. समाज के हाशिये पर पड़े वर्गों की आवाज़ सुनने को कोई तैयार नहीं है. इन आवाज़ों को सुना जाना चाहिए.
भारत की साँझा संस्कृति की समृद्ध विरासत है. यही हमारी पूँजी है. विभिन्न समुदायों ने भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनाने में अपना योगदान दिया है. सूफी और भक्ति संतों का प्रेम और करुणा का सन्देश आज भी आम लोगों के दिलों में जिंदा है. कबीर, बुल्लेशाह, तुकाराम और मीराबाई जैसे संतों ने समानता की संस्कृति और उदारवादी मूल्यों की वकालत की थी.
आरएसएस और भाजपा ने गांधीजी, भगत सिंह और अम्बेडकर जैसे प्रगतिशील नायकों पर कब्ज़ा कर लिया है. उन्हें महज़ पोस्टरों पर चेहरे बना दिया गया है. इन नायकों ने जाति और अन्य विघटनकारी कारकों को जिस तरह चुनौती दी थी, उसकी कोई चर्चा नहीं की जा रही है. इन नायकों को उनके उपयुक्त स्थान पर पुनर्स्थापित किया जाना होगा और उनके समानता, स्वतंत्रता और समालोचनात्मक चिंतन की सन्देश को फैलाना होगा.
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प्रतिरोध की संस्कृति
नागरिक समाज को वैकल्पिक मीडिया का इस्तेमाल कर, दूसरे आख्यानों का प्रसार करना होगा. ये आख्यान देश की विविधता, बहुवाद और संवैधानिक मूल्यों पर केन्द्रित होने चाहिए. ये आख्यान ऐसे होने चाहिए जिनसे लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा मिले. आम लोगों की असली समस्याओं और चिंताओं को स्वर दिया जाना होगा. इनमें से कुछ हैं जातिगत, आर्थिक और लैंगिक असमानताएं. जाति के उन्मूलन, लैंगिक समानता और श्रमिकों और किसानों के अधिकारों के लिए चलाये जाने वाले सामाजिक आंदोलनों से प्रजातंत्र मज़बूत होगा.
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जागरूकता
इस चुनाव में भाजपा को 37.4 प्रतिशत मत मिले हैं. इसका अर्थ यह है कि 60 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने इस पार्टी को वोट नहीं दिया. इस बहुसंख्यक आबादी तक पहुंचना तो ज़रूरी है ही, हमें उन लोगों तक भी पहुंचना होगा जिन्होंने भाजपा का साथ दिया. यह आवश्यक नहीं है कि उन सबने हिंदुत्व के समर्थन में अपने मताधिकार का उपयोग किया है. हमें लोगों को नफरत की राजनीति के खतरों के प्रति आगाह करना होगा.
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एकजुटता और नेटवर्किंग