राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एससी-एसटी के प्रति प्रेम !
(त्रिभुवन)
वह देश का एक महाकाय संगठन है। उसकी एक राजनीतिक शाखा है। वह आज तक आरक्षण के ख़िलाफ़ था। एकदम खुला। निडर और साहसी। डंके की चोट पर। इस संगठन से जुड़े हमारे ‘मित्र’ एससी-एसटी को लेकर बहुत कुछ ऐसा कहते थे, जो बताता था कि भारतीय सवर्ण वर्ग में दलितों और वंचितों के प्रति कितना सघन घृणाभाव ठसाठस भरा है। लेकिन आज जब एससी-एसटी कानून के ख़िलाफ़ बंद था तो इनके ये दोनों ही संगठन, जो आज तक आरक्षण के इतना घनघोर विरोधी थे, अचानक उन्हें एससी-एसटी के प्रति इतना प्रेम क्यों और कहां से उमड़ आया? भावनाओं का यह निर्झर आया कहां से? क्या मानसिकता अचानक बदल गई?
दरअसल, वोट की राजनीति राजनीतिक दलों के लिए एक बहुत बड़ा मायना रखती है। किसी भी समाज या देश में वर्चस्व कायम करना और समूची शासन सत्ता पर कब्जा करना ही आज के राजनीतिक दलों का एकमात्र और सर्वाेपरि लक्ष्य है। उनके लिए जीत या हार एक बहुत बड़ी घटना है। इसके लिए वे जाति, धर्म या कुल या गोत्र किसी भी चीज़ का उपयोग कर सकते हैं। राजनीति की आत्मा में आम सामाजिक जीवन की कालिख भी एक उजाला लाने वाली घटना बन सकती है। राजनीतिक दलों और राजनीतिक वर्चस्व का स्वप्न रखने वाले लोगों के लिए ऐसी कलाबाजियां एक बड़े संसार का प्रवेश द्वार हैं। और यही वह चीज़ है, जो इस समय इस परिवार के लिए आरक्षण के दायरे में आने वाली जातियों के प्रति प्रेम का एक कारण बन गया है।
जाति और धर्म हमारे समाज में एक विष बेल की तरह फैल गए हैं। भले हम एक मानवीयता पर आधारत भारतीय राष्ट्र का समाज बनाने की बात करें या इससे वृहत्तर, यह विष बेलें हमारे स्वप्नों के कंठ के चारों तरफ लिपटने लगती है। इस राजनीतिक उच्चाकांक्षी परिवार को लगता है कि हिन्दुत्व के सहारे उसके सत्तावादी स्वप्न साकार हो सकते हैं। लेकिन जब हिंदुत्व का समाज शास्त्र समझ आता है तो पता चलता है कि इसमें एससी, एसटी और ओबीसी 85 प्रतिशत से भी अधिक और अनारक्षित जातियां 15 प्रतिशत से भी कम हैं। भारतीय सत्ता के केंद्रीय कक्ष में बैठे इस वर्चस्ववादी संगठन के रणनीतिकारों को लगता है कि हिंदुत्व के एटलस में अगर इन 85 प्रतिशत संख्या बल वाले इस आरक्षित वर्ग पर ध्यान नहीं दिया गया तो उनका हिंदुत्व उन्हें सत्ता तक नहीं ले जा सकता। इसलिए अब उनका फोकस एससी, एसटी और ओबीसी की जातियां हो गई हैं और उन्हें ब्राह्मणों, वैश्यों, राजपूतों, कायस्थों, सिंधियों आदि से कुछ लेनादेना नहीं है। उन्हें लगता है कि हम नाहक ही ब्राह्मणों, वैश्यों, राजपूतों आदि को पालपोस रहे हैं। यह तो उनका भूगोल है ही नहीं। इसीलिए वे देश का राष्ट्रपति पद एक ऐसी जाति के व्यक्ति को देते हैं, जिसका छुआ पानी उनका समर्थक नहीं पीता। उनका प्रधानमंत्री एक ऐसी जाति से आता है, जो राजा भोज के बिलकुल विपरीत विपन्नता का प्रतीक है।
इस विचार और रणनीति के लोगों ने अब एससी-एसटी और पिछड़ा वर्ग से नया मोह स्थापित करते हुए अब तक के अपनी जीवन से अधिक विराट और अपने समाजशास्त्र की सीमाओं से कहीं अधिक विस्तीर्ण संभावनाएं स्थापित कर ली हैं। अब उनकी भाषा बदलने जा रही है। अब यही उनके पुरखे और यही उनके पिछले जन्म के साक्षी हैं। यह पूर्व जन्मों का पवित्र संबंध है। अब यही जातियां उनके लिए गंगा, कावेरी और नर्मदा जैसी पुण्य पावन नदियां हैं, भले ही अतीत में वह उन्हें कैसे भी कोसते रहे हों। यह एक नया परिवर्तन है घटता हुआ, लेकिन लोगों को समझ नहीं आ रहा है। इसीलिए वे एससी-एसटी कानून के विरोध में अपने पुराने वर्ग को बंद आदि के काम पर लगा देते हैं और एससी-एसटी के एक्ट को लेकर उसी राह पर चलते हैं, जिस पर आजतक कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल चलते थे। यही नया और एक चिरंतन हिंदुत्व है। लेकिन धुंधलका ऐसा है कि अभी अपने को शाश्वत राजा भोज समझने वाले अनारक्षित वर्ग के सवर्ण और दर्पीले सीने में गंगू तेली की छवि एक महावीर-महानायक की तरह अक्षुण्ण रहेगी।
आज मैं देखता हूं कि मेरे परिचित वर्ग में दूर दूर तक कोई भी एससी-एसटी एक्ट की बदनाम धारा के चपेट में नहीं आया है, लेकिन पूरा अनारक्षित समाज इसका कटु आलोचक होकर सड़कों पर है। लेकिन यह कैसी विडंबना है कि मैं एक भी व्यक्ति को उन पाशविक नीतियों के विरोध में एक स्वर भी निकालते नहीं देखता, जो आए दिन हमारे भारतीय समाज के सुखों और संवेदनाओं को तिरोहित किए जा रहे हैं। क्या हमारे लिए हमारे राष्ट्र के सबसे कमजोर लोगों के स्वप्नों को साकार करने के प्रति कोई संवेदना नहीं बची है? और वह भी क्या कर रहे हैं, जो एससी-एसटी के चिरंतन दुखों के निवारण की आवाज़ उठाने के बजाय उनके गुस्से को भड़काकर एक नए जातियुद्ध का वातावरण बना रहे हैं?
जो लोग आज एससी एसटी के प्रति इतने आकुल हो रहे हैं, उनकी चिंता दलित वर्ग की चिंता नहीं, उनके सरोकार राजसत्ता की ऐषणा से जुड़़े हैं, जो सभी राजनीतिक दलों के भीतर कमोबेश एक जैसी है। लेकिन क्या हम अपनी अपनी काया के भीतर मौजूद हृदय से प्रेम की कोई लौ लेकर उसकी लपट नहीं बना सकते, जो अंधेरों को दूर करे और हम एक प्रकाशमान भारत को प्राप्त कर सकें, जहां बंधुता, समता, स्वतंत्रता और न्याय का एक दिपदिपाता वर्तमान हो हर भारतीय के लिए !
(त्रिभुवन जी की फेसबुक वाल से साभार)