पुणे के जैन समाज ने यह क्या किया ?
मेरे पिता कहते हैं कि समाज के पंच जब बैठ कर बातचीत करते हैं, एक मीटिंग बुलाते हैं और किसी मुद्दे पर कुछ तय करते हैं ,तो वो बात आलाकमान के हुकुम के जैसे है. आज पुणे जैन समाज के चार ग्रुप्स की मीटिंग हुई-चार ‘धड़े’, चार समाज. ऐतिहासिक तौर पर ये धड़े कौन सा परिवार राजस्थान के किस क्षेत्र से आया है उस पर बने हैं. हाँ, इन अलग-अलग धड़ो की ज़रुरत इसलिए पड़ी ताकि एक नस्ल की औलादों और उनके परिवारों के बीच शादी ना हो.
पिता घर आये और काफी खुश नज़र आ रहे थे. मैंने पूछा कि क्या हुआ, तो उन्होंने बताया, “अरे बहुत मज़ा आया ”
मैंने पूछा, “किस बात का?” तो कहा, “मीटिंग में कुछ चीज़ें तय हुईं”
“क्या?”
“शादी के भोज में सिर्फ 21 व्यंजनों का होना. शादी के पहले होने वाले संगीत के प्रोग्राम पर बंदी लगा दी. pre-wedding photoshoot पर भी बंदी.अन्तर-जातीय विवाह अगर हो तो उसके घर कोई नहीं जाएगा. बहिष्कार नहीं होगा पर फिर भी उस घर में कोई नहीं जाएगा”. photoshoot वाली बात पर तो मेरी माँ ने भी अपना समर्थन दे दिया.
मुझे चिढ़ मची तो मैंने पूछा, “क्यों? कौन होते हैं ये पंच जो औरों की ज़िन्दगी बारे में तय करने की ज़िम्मेदारी खुद पर उठा लेते हैं?”
ये पंचायतें समाज के बीच रह कर समाज के होने-ना होने, जीने-मरने के तरीकों पर टिप्पणियाँ करती रहती हैं. शायद ये आज कोई अच्छा सुझाव दे दें और हो सकता है कल को फतवा जारी कर दें कि “आप केवल 2 बच्चे पैदा करोगे”, फिर कहें, “हमारी कौम एक माइनॉरिटी कौम है और कौम के साथ अपनी संस्कृति को बनाये रखने के लिए हमें और बच्चे पैदा करने हैं”, तो आप मान जाओगे क्या? फिर कोई तीसरे दिन आकर कहे- “अब से सिर्फ एक ही रंग के कपड़े पहनने होंगे-गुलाबी”, तो आप मान जाओगे क्या?
दिमाग से ये सब गुज़र ही रहा था कि तभी पिताजी का उत्तर आया, वो बोले, “जैसे सरकार हमारे ज़िन्दगी के बारे में कुछ तय करती है, वैसे ही ये पंच समाज की सरकार हैं, वो हमारे समाज को बनाये रखने का काम करती है.”
“पर सरकार को तो सब मिलकर चुनते हैं.आपके समाज की पंचायत तो भेद-भाव पर बनायी जाती है. महिलाएं कहाँ हैं आपकी इस पंचायत में? पुरुष प्रधान पंचायत है आपकी”
“हाँ, है पुरुष प्रधान. पर पुरुष प्रधान तो तू भी है. इतना ही पुरुष प्रधान नहीं होना है तो तू घर पर ही रह, खाना बना और माँ को बाहर जाने दे.” बात तो बिलकुल सही है और शायद इसलिए मैं चुप सा हो गया, पर फिर खयाल आया कि माँ को घर से बाहर जाने से मैं नहीं रोक रहा हूँ, वो तो पिताजी ने किया है. इसका मतलब ये नहीं कि हम दोनों में से किसी की भी पितृसत्ता सही है.
मैंने फिर वापस जाकर उनसे कहा, “मुझे भी साथ ले जाते मीटिंग में ” वो बोले, “एक घर से केवल एक ही इंसान जा सकता है”
“क्यों? मैं उनका खाना नहीं खाता, फिर मीटिंग में बैठने से क्या दिक्कत है?”
“छोटों का आना नहीं चलता है”
“पर अगर मेरी ज़िन्दगी के बारे में कुछ तय किया जा रहा है, तो मेरे वहाँ होने से मुझे कोई क्यों रोके?”
“चुप “
राठोडी, पितृसत्ता !!
यह सब ऐसे ही काम करते हैं. बस कुछ भी फैसला कर लो पर जिनकी ज़िन्दगी के बारे में तय हो रहा हैं, उनको सुनने भी मत दो, ना ही उनकी सुनो. इनको नाजायज़ अधिकार है और लोगों की ज़िन्दगी के रंग-रूप तय करने का. जिन्होंने खुद अपनी शादियों में दहेज लिया है वो बैठ कर तय कर रहे हैं कि शादी क्यों, कैसे और किसके साथ होगी. पर ये चाहते हैं कि कोई इन पर सवाल ना उठाए. मैं आपके इस प्रभुत्व को नहीं मानता, उसे ठुकराता हूँ. एक संविधान है इस देश का, एक कानून है जिसमें आपके आदेशों के लिए कोई जगह नहीं.
अपनी जाति संबन्धित पहचान और सत्ता को बचा कर रखने के लिए ये लोग सड़े-गले नियमों को खुद ढ़ोते और दूसरोँ पर लादते आ रहे हैं. उनकी इस नयी, आधुनिक दुनिया में कोई जगह नहीं, वक्त आ गया है कि अब ये लोग अपनी सत्ता के बिना जीना सीख लें.
-श्रेणिक मुथा
( लेखक पुणे में वकालत पढ़ते हैं ,इस लेख का संपादन अंकिता आनंद ने किया है )